वे पति-पत्नी हैं
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वे पति-पत्नी हैं, वे फर्ज हैं।
एक दूसरे का
कभी न लिया हुआ सर्वोत्त्म कर्ज हैं।
अभिलाषाओं,इच्छाओं के वरदान से
होता है शुरू।
खंडित होने के शाप से
पराजित होता हुआ अरु। (और)
वे वायदे हैं और कसमें।
समा जाएंगे
इसमें और उसमें।
देह उनका चीन्हा ठिकाना है।
मन चिन्हे या नहीं
शरीर ही ज़िंदगी का फसाना है।
तन से शुरू होकर
तन में समाते संबंध।
कहानियाँ उतनी होंगी अच्छी
होंगे वे जितने समाने को प्रतिबद्ध।
अहंकार नहीं किन्तु,
अहं का युद्ध प्राय:।
पुरुष के यथार्थ का
नारी के कल्पना से,
और
उसके कल्पना से
पुरुष के सत्य का होना निराश्रय।
फिक्र मजबूरी या कर्तव्य!
संबद्धता जितनी बड़ी, उतना ही भव्य।
कीर्तियाँ,
एक दूसरे का गौरव व यश।
वे जैसे होते हैं मिले
धर नहीं पाते उस मिलन को
जस का तस।
पीड़ा देह का, स्पर्श से,
दु:ख देव का, भरोसे से,
तिरोहित।
भौतिकता की व्यथाएँ
शून्य करती उन्हें
संपदाओं पर मोहित।
प्रसन्नता के पल
फैलता है पूरे आकाश तक।
क्रोध के क्षण
पोंछता हुआ सब
फैली हुई उनके मध्य,
प्रकाश तक।
वे पति-पत्नी हैं
होते रहने को कटिबद्ध।
उलाहनों,प्रतिकारों,तिरस्कारों को
ढकेलते हुए परे
एक-दूसरे को
जीने के लिए प्रतिबद्ध।
वे पति-पत्नी हैं।
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