वे दिन भी क्या सुंदर दिन थे…..
वे दिन भी क्या सुंदर दिन थे…
बाँहों में जब चाँद की हम, चाँदनी ओढ़कर सोते थे !
पंख पसारे कल्पनाओं के,
स्वप्न लोक में विचरा करते।
दूर से ही छवि देख प्रिय की,
मारे खुशी के उछला करते।
मधुर स्मृतियों का हार बनाते, मनके मन के संजोते थे !
नयन मूंद जो ध्याते पल भर,
तसव्वुर में छवि उसकी पाते।
खो जाया करते थे यूँ उसमें,
सुधबुध हम अपनी बिसराते।
पलभर के भी विछोह से उसके, भरभर आँसू रोते थे !
प्रिय हमारा चाँद पूनम का,
हम दमकती रात रूपहली।
पहलू में उसके सिमटे जाते,
थी मौहब्बत पहली-पहली।
नैनों के दरपन में हम उसके, खुद को सँवारा करते थे !
जग-कोलाहल से दूर कहीं,
वह हमको ले जाया करता।
रख काँधे पर हाथ प्यार से,
अनुपम गीत सुनाया करता।
निर्निमेष नयनों से अपने, हम उसको निहारा करते थे !
अद्भुत दिन थे अद्भुत रातें,
विस्मृत न हो पातीं वे बातें।
मन से सीधे मन में खुलतीं,
मासूम वे प्यार की सौगातें।
उसकी एक झलक पाने को, चैन-धीरज सब खोते थे !
बड़ा सलोना चाँद था अपना,
भर- भर सुधा छलकाता था।
भर दुलार आँखों में अपनी,
इंगित कर पास बुलाता था।
आज दूर वो चाँद-चाँदनी, देख जिसे हम जीते थे !
अनमोल निधि थी यही हमारी,
कोई और खजाना पास न था।
रूप-गुण उसी के बाँचा करते,
कोई और तराना पास न था।
करते थे याद दिन-रात उसे, छुप-छुपके रोया करते थे !
खरोंच उसे जो कोई लगती,
टीस हमारे मन में उठती।
कुछ कहते कब बनता था,
जिह्वा नाम उसी का रटती।
भूख-प्यास भुला अपनी, शुभ उसकी मनाया करते थे!
धुंधला गयी अब नज़र हमारी,
नज़र न आए सूरत वह प्यारी।
रूठे हैं आज नज़रों से नज़ारे,
घिर आई अमा की अँधियारी।
कल इन्हीं नज़रों से उसकी, नज़र उतारा करते थे !
अब सूने दिन हैं उन्मन रातें,
बेमौसम बरसतीं हैं बरसातें।
अब कहाँ वो मान-मनौवल,
दया की बस मिलतीं खैरातें।
उन दिनों की बात निराली, नेहरस पी-पी न अघाते थे !
वे दिन भी क्या सुंदर दिन थे …
– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0 )
” चाहत चकोर की ” से