वेदने ! तू धन्य है री
प्रणय-पीड़ा की प्रतिध्वनि है वेदने ! तू धन्य है री !
निश्चय ही सृजन का मूल पीड़ा है । पीड़ा के गर्भ से ही काव्य-शिशु जन्मता है । पीड़ा/संवेदना के अभाव में कविता, कविता नहीं सिर्फ शब्दाडम्बर है । ह्रदय में जितनी गहन संवेदना होगी उसका प्रकटीकरण भी उतना ही मर्मस्पर्शी होगा । भाव प्रकटीकरण की सदानीरा स्रोतस्विनी की एक रागात्मक धारा का नाम है गीत । गीतों का चुम्बन अधरों को तभी मिलता है जब या तो आनंदोल्लास के घने बादल छाये हों या मानस-तट दर्द के दरिया में डूब गए हों ।
” वेदने ! तू धन्य है री ‘ के गीत भी पीड़ा-प्रसूत हैं । और हों भी क्यों नहीं काव्य स्वानुभूत जीवन का हस्ताक्षर जो है । कवयित्री अनुराधा पाण्डेय के ये शब्द-चित्र सायास कर्म की प्रतिलिपि नहीं वरन ये तो उनके स्वानुभूत जीवन की अश्रु मिश्रित वे मनोहर छवियाँ हैं जो हृदय-पृष्ठों पर स्वमेव अंकित हो गयीं जिन्हें बाद में सामान्य पृष्ठों पर मुद्रित कर पुस्तक का रूप दे दिया गया । कवयित्री का यह पीर-सिंधु कुछ पलों या घटाओं का संचित परिणाम नहीं है । यह तो असंख्य सुखद क्षणों, अगणित मधुर स्मृतियों, सतरंगी सपनों, प्रेमपूर्ण उपहारों….की उपज है । जो भव-आघातों से संपीडित होकर, हृदय-तटबंध तोड़कर नयन-निर्झर से झरा है । अनुष्ठान की प्रथम पुण्याहुति देखिए- इस ह्रदय की आह ही तो/ साँस में उन्माद भरती/ पीर की मसी ही जगत में / तूलिका में नाद भरती/……रीत जाते मोद के क्षण/ ऊबती जब चेतना/ पृष्ठ पर आकर हृदय के/ पालती तब वेदना । (पृष्ठ 11, 12 )
जगत द्वारा क्षिप्त पाश में सरल, सहृद आसानी से फँस कर प्रवंचकों के सहज शिकार हो जाते हैं । पर कब तक ? वंचना की उम्र लम्बी नहीं होती । छल-प्रपंच को बेनकाब होते देर ही कितनी लगती है ? तभी को कवयित्री कहतीं हैं- अब मृषा को नैन मेरे/ दूर से पहचानते हैं / मधु लपेटे छद्म स्वर को / अब न सच्चे मानते हैं । (पृष्ठ 14 )
यह ध्रुव सत्य है चर्मोत्कर्ष के पश्चात अधोपतन की यात्रा आरंभ हो जाती है । सौंदर्य की पराकाष्ठा के बाद बदसूरती का पैर पसरने लगता है । न चाहते हुए भी हास को रुदन की गलियों से गुजरना पड़ता है । यहाँ शाश्वत कुछ भी नहीं । सब क्षणभंगुर है । इस मर्त्यलोक में अमरत्व का वरदान भला किसने पाया ? यही तो कह रही हैं ‘ वेदने तू धन्य है री ‘ की सरल साधिका- पता हमें अवसान सभी का/ क्षणभर के हैं चाँद सितारे / क्षणभर नदियाँ रस वाही हैं / दग्ध सिंधु जल खारे-खारे । (पृष्ठ 17 )
प्रेम-मार्ग सहज नहीं है । इस पर चलना खड्ग -धार पर चलना है । पग-पग पर प्रेम विरोधी आँधियों का सामना करना पड़ता है । रक्तिम आँसुओं से सपनों का अभिषेक करना होता है । इतना ही क्यों कभी-कभी तो इस प्रेम-यज्ञ में प्राणों की आहुति तक देनी पड़ जाती है । कवयित्री के ये शब्द इस बात के साक्षी हैं – क्यों जगत यह रोक देता / व्यर्थ कह पावन मिलन को / मार कर क्या प्राप्त होता / वंद्य द्वय उर के मिलन को / ( पृष्ठ 24 )
कवयित्री विरह-मिलन की धाराओं में संतरण करती हुई कभी कटु अनुभवों की चुभन से सिहर उठती है तो कभी सहवास जन्य स्मृतियों में खोकर प्रिय का आह्वान कर कहने लगती है – याद कर द्वय चाँदनी में/ साथ मिल जब थे नहाए / शांत नद एकांत तट पर/ प्रेम धन जो थे लुटाए ……….खींच ले वे चित्र मधुमय / प्रीतिमय आलिंगनों के / टाँक ले अपने अधर पर / शुचि छुवन मृदु चुम्बनों के / (पृष्ठ 27, 28)
समीक्ष्य कृति में व्यक्त प्रेम इह लौकिक न होकर पार लौकिक है । राधा-मीरा के प्राण मदन को अपना सर्वस्व मानकर कवयित्री उन्हीं को संबोधित कर अपनी मन-पीड़ा व्यक्त करती है । कभी-कभी तो कवयित्री इतनी भाव विह्वल हो उठती है कि अपनी चेतना खोकर उस सर्वव्यापी सतचित्तानंद परमेश्वर से संवाद करने लगती है । बानगी देखिए- तू सुने, पग रुके, या करे अनसुनी / साधना पर सतत प्राण पण से चले / प्राण बाती भिगो प्रेम के नीर में / घुर प्रलय तक सतत दीप जले ।……..पथ विभाषित करूँ आदि से अंत तक / क्या पता किस डगर से करे तू अयन ? ( पृष्ठ 39, 40 )
कृति को आद्योपांत पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे वेदना स्वयं पृष्ठों पर उतर कर अपनी जुबानी कवयित्री की कहानी कह रही है । कृति के समस्त पदों को यहाँ रखा जा सके यह संभव नहीं उनका रसास्वादन तो पुस्तक पठन कर ही किया जा सकता है । तथापि किंचित पद जो बरबस पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम हैं उनका शिल्पसौन्दर्य यहाँ सहज निहारा जा सकता है जैसे- मैं पीड़ा के सुमन बटोरूँ / तुम निज व्रण के माणिक लाना / नहीं अधिक श्रम होगा इसमें / दुख अपना जाना पहचाना । (पृष्ठ 47 ) तुम अपने सब अवसादों को / दुल्हन जैसा आज सजना / मेरे मन के दुख दूल्हे हित / माथे का चंदन भी लाना । ( पृष्ठ 48 ) मानती हूँ है विरह तो है मिलन की यामिनी भी / है अमा की रात यदि तो कभी है चाँदनी भी । ( पृष्ठ 73 ) बोल तेरे कुन्तलों में / टाँक दूँ नभ के सितारे / पाँव तब धरना धरा पर / जब बिछा दूँ चाँद तारे । ( पृष्ठ 112)……
गीत संग्रह को काव्यशास्त्रीय कसौटी पर कसकर देखें तो भावानुकूल छंद विधान भाषिक सौंदर्य को द्विगुणित करता जान पड़ता है । विविध छंदों एवं अलंकारों की छटा दर्शनीय है । भावशिल्प भी बेजोड़ पायदान पर खड़ा है ।
गीतों की श्रेष्ठता स्वयं सिध्द है । इसके लिए महीयसी महादेवी वर्मा की अनुगामिनी अनुराधा पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई एवं आगामी कृतियों के लिए शुभकामनाएँ । समय-सूर्य आपके सृजन को अपनी स्वर्णाभ किरणों से सदैव प्रभाषित करता रहेगा इसी विश्वास के साथ समीक्ष्य कृति के लिए इतना ही कहूँगा-
वेदने ! तू धन्य है री, पा गई वरदान मनु से /
राधिका से प्राण-अमृत, सत्व का संज्ञान कनु से /
कह रही हैं खुद दिशाएँ, गंध-गंगा हाथ लेकर- /
शब्द का अभिषेक फिर से, हो रहा अम्लान तनु से ।
पुस्तक नाम- वेदने ! तू धन्य है री (गीत-संग्रह)
कवयित्री- अनुराधा पाण्डेय ‘काव्य केशरी’
प्रकाशक- श्वेतांशु प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य- 250 रु
अशोक दीप
जयपुर
8278697171