वेतन की चाहत लिए एक श्रमिक।
है घर द्वार उसके भी।
है उसकी भी कुछ लालसा।
घसीटता,रगड़ता करता श्रम।
चंद रुपए की लिए दिलासा।
मिलता न अगर उसे धन।
रहता है वो मारे मन।
हो गए हो जो तुम धनाढ्य।
उन श्रमिकों के श्रमदान से।
लगाए घर पर आशा।
जरुरतों को पूरा करने को बैठी है बीवी।
बेटों की फीस,खेतो में खाद।
चलाने को खर्च घर का स्वाभिमान से।
रक्त उबलता है,पसीना निकलता है।
तब जाकर हाथ में ये पैसा मिलता है।
खेलो न तुम उनके बेबसी से।
गरीबी को देखो तुम उतरकर जमी से।
इक निवाला और प्याला के।
वो है आंखो में लिए नमी से।
हाय लगती है जब किसी लाचार की।
तो रोक नहीं सकता कोई तकदीर के मार की।
ये जनता ही है तुमको राजा बनाया।
उनके ही खून पसीने से तुमने घर सजाया।
आनंद बहुत बेकल है मन से।
करता न मन मस्तिष्क काम।
जब हीन हो धन से।
RJ Anand Prajapati