वृद्धावस्था में प्यार ..
जवानी प्यार की पींगे जब चाहे बढ़ा सकती है ,
क्यों बड़ी उम्र का प्यार उसमें झूल नहीं सकता है ?
निभा तो दिए सारे फर्ज संतान के प्रति जो भी थे ,
अब अपने लिए जीना चाहे, क्यों गवारा नहीं होता है?
हम घुट घुट एकांकी जीवन जिए यह मंजूर हैं मगर ,
किसी साथी से क्या दूसरा प्यार नहीं हो सकता है ?
अभी जीवन खत्म तो नहीं हुआ अब भी कुछ शेष है ,
उस शेष जीवन को खुशी से जिया जा सकता है ।
तुम स्वार्थी,अहंकारी,बस अपने सुख की सोचते हो ,
हमारे एहसास,हमारे दर्द से तुम्हें कोई फर्क पड़ता है ?
अपनी परेशानियों/ परिस्थितियों से अकेले झूझते है ,
हमारी समस्या सुनने व् पास बैठने का वक्त होता है ?
हमारा प्रेम सच्चा प्रेम है भोग विलास से कोसों दूर ।
ऐसे में तो केवल एक हमसफर / हमराज का ही अरमां होता है ।
प्यार को वीभत्स बनाया तुम्हारी पीढ़ी ने ही समझे !
वरना प्यार गर सच्चा हो तो वो अराध्य होता है ।
तुम तो हमें अपनी जिंदगी से अलग कर चुके हो ,
अब हमारी जिंदगी में दखल तुम्हें शोभा देता है ?
हमारे सीने में भी एक धड़कता हुआ दिल है,जीवित है
इसीलिए प्रेम करने और प्रेम पाने का हक हमें भी है।
वो गर तुम ना दे सको ,या ना देना चाहो ,तो क्या !!
जहां भी, जिससे भी मिले सच्चा प्यार ,स्वीकारा जा सकता है ।
नोट – एक मराठी चलचित्र ” जीवन संध्या” की कथा पर आधारित कविता ।जो संतानें अपने वृद्ध माता ( विधवा ) और पिता ( विधुर ) को उनके हाल पर तन्हा छोड़ देते है । क्या ऐसे में उन्हें अपने लिए हमसफर / हमराज / हमदर्द तलाश करने का हक नहीं मिलना चाहिए ?