वृक्ष से झरते
वृक्ष से झरते गए
सब पात सूखे ।
स्वप्न फिर से रह गए
मन के निरुखे ।।
डालियों की ऑंख
देखो डबडबाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
फूल गोदी में लिए
बरगद खड़ा है ।
प्रकृति से होड़ ले
जिद पर अड़ा है ।।
रीत की निष्ठुर नियति
देती दुहाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
वर्ष भर से लग रहे
थे बहुत नीके ।
वन वधू के पड़ गए
श्रृंगार फीके।।
उड़ गए सब रंग
कैसी छवि पाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
शिथिल सरिता बह रही
रसहीन होकर ।
रूप की राशि लुटी
अभिसार खोकर ।।
रूखे मन से हवा भी
सौगात लाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
विकल होकर ढूंढते
वन जीव छाया ।।
हर तरफ सन्नाटे की
फैली है माया ।।
उच्च शिखरों पर
उदासी घोर छाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
यह न दुख की बात है
बदलाव की है ।
नव सृजन की आहटों
के चाव की है ।।
दे रही पदचाप उसकी
ही सुनाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
यही तो है सृष्टि की
रचना निराली ।
जीर्ण से ले नए ने
सत्ता सम्हाली ।।
पतन और उत्थान
देता है दिखाई ।
हाय ! फिर से पतझड़ों
की ऋतु आई ।।
✍️सतीश शर्मा।