वृक्ष का सफर
जैसे ही भानु की किरणे,
पड़ी एक नन्हें तुख्म पर,
वो तुख़्म फिर घबरा गया,
तब निकला भूमि के बाहर।
सोचा फिर उसने बाहर की दुनिया देखकर,
ये दुनिया तो किसी जन्नत से कम नहीं,
भांप न पाया वो ईश्वर के इरादे को,
एक दिन उसे इसी मिट्टी में मिलना होगा।
तकदीर उसकी अच्छी थी,
बढ़–चढ़ कर वो बड़ा हुआ,
जब फल लगने लगे उसमें,
तो खुश वो बहुत आया।
बच्चे, जवान, बूढ़े सभी,
चाव से उसके फल खाते हैं,
ये देखकर वो फूले न समाया,
आनंदित, विभूषित और अलंकृत हो उठा।
वक्त बीतता गया,
जवानी बुढ़ापे में बदल गई,
फल लगना बंद हो गया,
सारी खुशी ढल गई।
फिर एक दिन वो काटा गया,
दर्द तो बहुत हुई,
पर क्या करता बेचारा,
वक्त के हाथों मजबूर था।