वृंदावन की यात्रा (यात्रा वृत्तांत)
वृंदावन की यात्रा( 7-8 मार्च 2021)
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वृंदावन की हर श्वास पर राधा नाम अंकित है । यहाँ की हवाओं में राधा के नाम की मस्ती घुली हुई है । जिस गली ,जिस सड़क से गुजर जाएँ ,आपको राधा नाम लिखे हुए न जाने कितने भवन मिल जाएंगे। जगह – जगह ठेले लगे हुए हैं और उन पर अधिकांशतः राधा जी का नाम अंकित है । अभिवादन राधे – राधे कह कर सब लोग कर रहे हैं । किसी से कोई बात शुरू करो तो उससे पहले राधे – राधे कहने का प्रचलन चारों तरफ है।जय राम जी की अथवा जय श्री कृष्ण कहने की प्रवृत्ति वृंदावन में देखने में नहीं आई ।सर्वत्र राधा के नाम का ही जाप हो रहा है । वृंदावन राधामय है । इस मामले में देखा जाए तो राधा जी कृष्ण से चार कदम आगे हैं ।
राधा जी की बात भगवान कृष्ण नहीं टालते हैं ,सर्वत्र इसी भाव की पुष्टि हमें वृंदावन में होती है । संयोगवश हम वृंदावन में “प्रेम मंदिर” के सामने जिस होटल में ठहरे, वह “चाट – चौपाटी” के निकट होटल “श्री राधा निकुंज” था । यहां भी “राधा” नाम को प्राथमिकता मिली हुई थी ।
7 मार्च 2021 रविवार को सुबह 6:00 बजे रामपुर से चलकर हम 11:00 बजे वृंदावन पहुंच तो गए लेकिन शहर पर चार पहिया वाहनों का दबाव इतना ज्यादा रहता है कि शनिवार – रविवार को प्रशासन ने कारों के प्रवेश पर रोक ही लगा रखी है। वृंदावन से काफी पहले बाएँ हाथ को एक बड़ा पार्किंग स्थल था । वहां हमारी कार उन्होंने पार्किंग में खड़ी कर दी और हम अपने कपड़ों आदि का बैग उसमें से उठाकर एक ऑटो रिक्शा के माध्यम से अपने होटल पर पहुंचे । हमारे होटल की बालकनी से “प्रेम मंदिर” थोड़ा आड़ में अवश्य था लेकिन फिर भी स्पष्ट दिख रहा था । शाम को जब चाट चौपाटी – प्रेममंदिर मार्ग पर ई-रिक्शा ऑटो आदि का जाम लगना शुरू हुआ और पैदल चलना भी दूभर हो गया ,तब प्रशासन की योजना की सराहना करनी पड़ी । अगर वृंदावन में प्रवेश की इच्छुक कारों को शहर में आने दिया जाता ,तो ट्रैफिक को संभालना असंभव हो जाता ।
प्रेम मंदिर
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“प्रेम मंदिर” वृंदावन का प्राण बन चुका है। दिन में यह सफेद पत्थरों का एक सुंदर और आकर्षक दृश्य उपस्थित करता है लेकिन जब शाम हो जाती है और सूर्य देवता विदा हो जाते हैं ,तब प्रेम मंदिर की शोभा देखते ही बनती है । बिजली की चमक-दमक से “प्रेम मंदिर” स्वर्ग लोक की किसी कृति के समान जान पड़ता है । कभी नीला ,कभी लाल -इस तरह अनेक रंग बदलता हुआ यह भव्य मंदिर दर्शकों की भीड़ को बराबर अपनी और खींच रहा है । हम भी रात्रि – दर्शन का आनंद उठाने के लिए प्रेम मंदिर में गये। प्रवेश करते ही दीवारों पर नयनाभिराम चित्रण हमारा मन मोहे बिना नहीं रह सका। भगवान कृष्ण यमुना में कालिय – नाग के अहंकार को चूर्ण कर रहे हैं ।कालिय नाग की पत्नियाँ हाथ जोड़कर भगवान से दया की भीख मांग रही है। यह दृश्य वृंदावन की धरती पर वृंदावन का ही दृश्य है । इसे बहुत सुंदरता पूर्वक प्रेम मंदिर में उतारा गया है। प्रेम मंदिर के भीतर अर्थात गर्भ गृह में इसी सुंदरता का परिचय हमें दीवारों पर खुदाई करके बनाए गए चित्रों को देखने से भी चलता है। सुंदर मूर्तियां अनुपम दृश्य उपस्थित कर रही हैं ।
.यहाँ कृपालु जी महाराज का ठीक वैसा ही चित्र था जैसा हम उनका प्रवचन टीवी पर सुनते समय देखते थे। बस इतना फर्क आ गया था कि हमने कृपालुजी महाराज को उनकी वृद्धावस्था के अंतिम चरण में देखा था । चेहरे पर झुर्रियां थीं। लेकिन यह जो मूर्ति प्रेम मंदिर में उनकी स्थापित थी ,वह वृद्धावस्था से कुछ पहले की है ।
संत हरिदास जी की छवि प्रथम तल पर दीवार पर पत्थर पर उतारी गई है । इसमें स्वामी जी अपने हाथ में वाद्ययंत्र वीणा लिए हुए हैं तथा पृष्ठभूमि में उनका मिट्टी का पात्र रखा हुआ दिखाई देता है । जब हम निधिवन में गए थे और वहां हमने स्वामी हरिदास जी की समाधि के दर्शन किए थे ,तब यही मिट्टी का पात्र वहां भी रखा हुआ दिखाई दिया था। हमारे गाइड ने हमें बताया कि घुमावदार छड़ी और मिट्टी का पात्र –यह दो पहचान स्वामी हरिदास जी की हैं। मिट्टी के पात्र की पुनरावृति प्रेम मंदिर में हुई इससे गाइड के कथन की पुष्टि होती है ।
स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के असाधारण विद्वान रहे हैं । आप तानसेन और बैजू बावरा के गुरु थे ।.इतिहास प्रसिद्ध है कि जब एक बार तानसेन के संगीत की प्रशंसा बादशाह अकबर ने की तो तानसेन की आँखों में आँसू आ गए । बादशाह ने पूछा “तानसेन कोई तो कारण अवश्य होगा कि आज तुम्हारी आंख में आंसू आ गए ?”
तानसेन ने कहा ” हजूर ! संगीत की इसी कला पर मेरे गुरु स्वामी हरिदास जी ने मुझे हमेशा डाँटा था और यहां तक कह दिया था कि तुम कभी संगीत नहीं सीख पाओगे ।”
बादशाह को स्वामी हरिदास जी से मिलने की इच्छा उत्पन्न हुई । दरबार में बुलाने का आदेश देना चाहा किंतु तानसेन ने कहा ” हमारे गुरुजी दरबार में आकर संगीत नहीं सुनाते । वह तो केवल परमात्मा के श्री चरणों में ही संगीत का निवेदन करते हैं ।”
फिर बादशाह अकबर स्वयं तानसेन के साथ स्वामी हरिदास जी के संगीत का श्रवण करने के लिए वृंदावन गया था ,ऐसा लोक प्रचलित कथाओं में आता है । उन्हीं संत हरिदास जी की समाधि निधिवन में हमने देखी थी । समाधि स्थल पर भक्तजन भजन आदि कर रहे थे। ढोलक आदि बज रही थी।
खैर ,हम “प्रेम मंदिर ” में जब दर्शनों के लिए गए तो मंदिर की भीतर की छटा निराली थी । बहुत बड़े क्षेत्रफल में मंदिर फैला हुआ है । यहां तक तो कोई दिक्कत नहीं आई लेकिन फिर जब चबूतरे पर मंदिर के मुख्य स्थान पर जाने का विषय उपस्थित हुआ तो जूते कहां छोड़ कर जाया जाए ?जूते उतारने के लिए कोई भरोसेमंद व्यवस्था नहीं थी । इस पर मैंने अपने साथ के सभी परिवार जनों से कहा कि तुम मंदिर के दर्शन कर आओ । देर मत करो क्योंकि मंदिर बंद होने का समय भी हो रहा है । मैं जूतों की रखवाली करता रहूंगा ।”
शुरू में तो सबको यह विचार ही पसंद नहीं आया कि मैं मंदिर में आकर भी गर्भ गृह में जाने से वंचित रह जाऊं । लेकिन फिर मेरे आग्रह करने पर सब चले गये । मैं प्रसन्नता पूर्वक जूतों की निगरानी करता रहा और एक हाथ जूतों पर रखकर फर्श पर पालथी मारकर बैठ कर मंदिर को चारों तरफ निहारता रहा । जल्दी ही सब लोग दर्शन करके आ गए और मुझसे भी कहा गया कि तुम भी अब दर्शन कर आओ। जूते हम देखते रहेंगे । मुश्किल से पांच – दस मिनट का समय बचा होगा । मैंने जूते उतारे और दौड़ता हुआ मंदिर के भीतर चला गया। सब लोग जल्दी में थे । भक्तजन यही कह रहे थे कि जल्दी चलो …जल्दी चलो …।मंदिर बंद होने वाला है ।”
हम जीना चढ़ने के बाद जब उतरने की स्थिति में थे ,तभी लाइट बंद होना शुरू हो गई और सबको बाहर निकालने की प्रक्रिया अनुरोध पूर्वक आरंभ हो गई । लेकिन फिर भी मंदिर हमने देख लिया ।
मंदिर के भीतर भीड़ की स्थिति यह थी कि सब लोग यंत्रवत मंदिर घूमते जा रहे थे… जीने पर चढ़ते जा रहे थे …और आगे बढ़ते जा रहे थे । कहीं अधिक सोच-विचार करने अथवा रुक कर ठहरने की गुंजाइश नहीं थी। परमात्मा जब जैसी अनुकूल परिस्थिति पैदा करना चाहता है ,वह उसकी सृष्टि कर देता है। हमारे भाग्य में प्रेम मंदिर की संपूर्णता का दर्शन लिखा था ,तो हमने कर लिया ।
इस्कॉन मंदिर
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इससे पहले दोपहर में इस्कॉन मंदिर के दर्शन किए थे । इसे शायद ही कोई “श्री श्री कृष्ण बलराम मंदिर” कहता होगा अथवा इस नाम से जानता होगा । लेकिन मंदिर के प्रवेश द्वार पर और बोर्ड पर यही नाम लिखा हुआ है । इस्कॉन मंदिर में जूते रखने की व्यवस्था बड़ी सुंदर है । आप एक झोला माँगिए । नंबर लिखा हुआ झोला आपको मिल जाएगा । उस में जूते रखिए और आपके जूते सुरक्षित रूप से जूतागृह में रख दिए जाएंगे । जब आप वापस आएंगे तो आप को दिया गया टोकन दिखाना होगा और उसे देकर उसी नंबर का झोला आपको वापस मिल जाएगा । यह सारी व्यवस्था निःशुल्क है। जूतों की तरफ से व्यक्ति निश्चिंत होकर मंदिर में घूम सकता है। हम बेफिक्री के साथ इस्कॉन मंदिर में घूमे ।
इस्कॉन मंदिर के भीतर “सेल्फी लेना मना है” ऐसा लिखा हुआ था । प्रेम मंदिर में भी लिखा था कि फोटो और वीडियो लेना मना है।
इस्कॉन मंदिर में भी भक्तों की भारी भीड़ थी । मंदिर खचाखच भरा हुआ वाली बात तो नहीं कह सकते लेकिन फिर भी भरा हुआ था। इतना कि हम थोड़ा आराम से मंदिर में घूमकर दर्शन कर सकते थे और हमने किए भी । मंदिर का आंगन एक पेड़ की उपस्थिति से अत्यंत शोभायमान हो रहा था तथा प्राकृतिक छटा बिखेर रहा था । एक तरफ 20 – 22 स्त्रियाँ फूलों की टोकरी अपने सामने रखे हुए थीं तथा सुई – धागे से फूलों की माला बनाने में व्यस्त थीं। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में भजन – संगीत चल रहा था अर्थात हरे राम हरे कृष्ण का गायन हो रहा था । इस्कॉन के बंधु हरे राम हरे कृष्ण का गायन जिस विशिष्ट अंदाज में करने के लिए विख्यात हैं, वह शैली यहां पूरी प्रभावोत्पादकता के साथ उपस्थित थी। 20 – 25 भक्तजन उत्साह पूर्वक तालियां बजाते हुए तथा नाम – उच्चारण को दोहराते हुए अद्भुत वातावरण उपस्थित कर रहे थे । मंदिर में तुलसी के पौधे एक स्थान पर देवी- देवताओं की परंपरा में स्थापित किए गए थे। उसके नीचे “श्रीमती तुलसी देवी” अंग्रेजी में लिखा हुआ था । इसने सहज ही मेरा ध्यान आकृष्ट किया अर्थात तुलसी वृक्ष नहीं है ,वह एक जागृत चेतना है –इस भाव को स्थापित किया गया था । हमने तुलसी देवी को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और जिस देवत्व के भाव से उसकी स्थापना मंदिर में देवताओं की कोटि में की गई थी ,उस भावना की मन ही मन सराहना की ।
इस्कॉन मंदिर में इसके संस्थापक प्रभुपाद जी का एक सुंदर मूर्ति – चित्र बनाया गया था । इसके अलावा एक स्थान पर प्रभुपाद जी अपने शिष्यों के साथ चलते हुए दिखलाई पड़ रहे थे । यह चित्र दीवार के पत्थर पर उकेरा गया था । इसमें प्रभुपाद जी के हाथ में एक छड़ी थी जिसे देखकर मुझे सहसा स्वामी हरिदास जी का स्मरण हो आया । वैसी छड़ी को हमने स्वामी हरिदास जी की समाधि पर देखा था । कुछ साम्यताएँ बरबस हमारा मन आकर्षित करती हैं। भारतीय संस्कृति को सारी दुनिया में फैलाने में इस्कॉन का बड़ा भारी योगदान रहा है। इस्कॉन मंदिर हमारी कृतज्ञता का एक वाहक होना ही चाहिए।
नो प्याज , नो लहसुन
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वृंदावन में सबसे ज्यादा अच्छा मुझे यह लगा कि चाट – चौपाटी के रेस्टोरेंट में दीवार पर कागज चिपका कर लिखा हुआ था “नो अनियन -नो गार्लिक” अर्थात हम अपने भोजन में प्याज और लहसुन का प्रयोग नहीं करते हैं । अब मेरी मुश्किल आसान हो गई थी और मुझे किसी भी वस्तु के बारे में यह पूछने की आवश्यकता नहीं थी कि इसमें प्याज तो नहीं पड़ा है।
चिंतामणि कुंज
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प्रेम मंदिर के समीप “चिंतामणि कुंज” नामक एक मंदिर दिखा ।यह भी बहुत भव्य है । सुंदर है । सफेद पत्थर का बना हुआ है। लेकिन इसमें इक्का-दुक्का व्यक्ति ही हमारे देखने में आए । जब “प्रेम मंदिर” का बंद होने का समय हो गया और हम सड़क पर टहल रहे थे ,तब चिंतामणि कुंज की भव्यता के साथ-साथ उस स्थान पर श्रद्धालुओं की भीड़ का अभाव कुछ खटका। हम लोग चिंतामणि कुंज में दर्शनों के लिए गए । वातावरण अच्छा था । मन को प्रभावित कर रहा था। पुजारी जी ने बातों – बातों में बताया कि लगभग चालीस साल पहले जब यह मंदिर बना था तब इस क्षेत्र का अकेला मंदिर था ।आसपास दूर तक सुनसान हुआ करता था।
निधि – वन
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“निधिवन” वृंदावन की आत्मा कही जा सकती है । इसकी यात्रा के समय हमें एक गाइड मिल गए थे तथा उन्होंने निधिवन के बारे में भी काफी कुछ बताया । यहां तुलसी की बड़ी – बड़ी झाड़ियां हैं । इन्हीं के मध्य भगवान कृष्ण राधा जी के साथ द्वापर युग में विचरण करते थे । गाइड महोदय ने बताया कि आज भी रात होने पर यहां राधा और कृष्ण जी पधारते हैं ,नृत्य करते हैं और उसी प्राचीन वातावरण को पुनः उपस्थित कर देते हैं । विशेषता यह है कि उस समय किसी का भी यहां पर प्रवेश वर्जित होता है। न कोई निधिवन में रात्रि में रहता है और न निधिवन में रात्रि में होने वाली राधा – कृष्ण की रास लीलाओं को देखने का प्रयत्न करता है । गाइड ने बताया कि पूर्व में कुछ लोगों ने अपने अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए यह दुस्साहस किया था । वह किसी प्रकार से निधिवन में रात में छुपकर राधा – कृष्ण के रास को देखना चाहते थे किंतु परिणाम स्वरूप उन्हें मानसिक विक्षिप्ति ही प्राप्त हुई और वह पागलपन की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुए । जिस स्थान पर स्वामी हरिदास जी की समाधि बनी हुई है उस भवन के बाहर 5 – 7 कुछ छोटी-छोटी समाधियाँ बनी हुई हैं। गाइड के अनुसार यह उन लोगों की हैं, जो निधिवन में जानबूझकर रात को रुक गए थे और जिन्होंने भगवान कृष्ण और राधा के रास को देखने का अक्षम्य अपराध किया था । निधिवन वह स्थान है ,हमारे गाइड ने बताया ,जो भगवान कृष्ण और राधा जी की लीलाओं का स्थल रहा है । स्वामी हरिदास जी की संगीत साधना का केंद्र भी यही निधिवन बना। उनकी समाधि ने संगीत , निधिवन तथा राधा कृष्ण के प्रति स्वामी हरिदास के भक्ति भाव को सदा – सदा के लिए आपस में जोड़ दिया।
निधिवन परिसर में ही एक अद्भुत मूर्ति राधा रानी जी की है, जिसमें राधा जी के हाथ में बांसुरी है और उन्होंने उस बांसुरी को मुंह से लगा रखा है । उनके आसपास दोनों ओर राधा जी की दो सखियाँ हैं ,जिनका नाम हमारे गाइड ने ललिता और विशाखा बताया। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि बांसुरी तो कृष्ण जी बजाते हैं । यह राधा जी के हाथ में बांसुरी कहां से आ गई ? गाइड ने कहा “यही तो इस मूर्ति की विलक्षणता है कि राधा जी कृष्णमय हो गईं और कृष्ण राधामय हो गए। राधा जी ने कृष्ण की बंसी चुरा ली । जिसने सारे संसार का हृदय चुरा लिया और जिस बंसी के द्वारा चुराया ,उस बंसी को राधा जी ने चुरा लिया । अपने होठों से लगा लिया। धन्य हैं निधिवन की अलौकिक लीलाएं !
नंद भवन और वंशी-वट
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वृंदावन का भ्रमण करते समय हम “नंद भवन” नामक एक स्थान पर गए । गाइड के अनुसार इसे “दाऊजी का मंदिर” भी कहते हैं । नंद भवन के मुख्य द्वार पर ठीक सामने एक लंबा ,बड़ा – सा पेड़ है जिसकी शाखाएं और पत्ते न तो बहुत ज्यादा और न बहुत कम कहे जा सकते हैं । गाइड ने कहा “यह द्वापर युग का वंशीवट है । भगवान कृष्ण इसी वृक्ष के नीचे बंसी बजाते थे और इसी के नीचे अपनी महान लीलाएं उन्होंने की हैं। ”
हमने पूछा “क्या यह वृक्ष हजारों साल पुराना है और उस समय से चलता आ रहा है?”
गाइड ने कहा “हां ! यह वही वृक्ष है ।”
यह सुनकर वृक्ष के प्रति भी श्रद्धा उत्पन्न हुई तथा जिन्होंने हजारों वर्षों से इस वृक्ष की रक्षा कर्तव्य मानते हुए कार्य किया ,उनके प्रति भी आदर का भाव उत्पन्न हुआ।
नंद भवन के भीतर पुजारी जी के पास हम लोग जाकर बैठ गए अथवा यूं कहिए कि गाइड ने हमें बिठा दिया। हम ने फूल मालाएं पुजारी जी के हाथ में रखीं। पुजारी जी रामपुर निवासी सुप्रसिद्ध पंडित रामभरोसे लाल शर्मा जी के रिश्तेदार थे । राम भरोसे लाल जी उनके फूफा जी थे तथा एक दिन पहले ही रात को उन्हें यह समाचार मिला था कि राम भरोसे लाल जी के बड़े पुत्र पंडित मनोज शर्मा जी का रात 12:00 बजे हृदय गति रुकने से निधन हो गया है । सुनकर हम भी शोक में डूब गए । मनोज शर्मा जी अपने पिताजी की भांति ही रामपुर की एक हस्ती बन चुके थे । सर्वत्र आदर के पात्र थे । अनायास ईश्वर इतना निष्ठुर हो सकता है ,यह अकल्पनीय था । उसके बाद जब हम भवन से बाहर निकले तो गाइड ने हमसे और हमने गाइड से विदा ली ।
…..लेकिन हां ,रास्ते में एक बहुत सुंदर- सा मंदिर पड़ा था । सड़क पर हम जब ऑटो से जा रहे थे तो 100 – 200 सीढ़ी चढ़कर मुझे टीले पर विशाल मंदिर को देखकर सहज ही उसकी तरफ ध्यान आकृष्ट हुआ । लगा कि यह कोई अद्भुत और भव्य कृति है । गाइड ने तो कोई जिक्र नहीं किया लेकिन हमने पूछा “यह मंदिर कौन सा है ? ”
इस पर गाइड ने जवाब दिया “यह मदन मोहन जी का मंदिर है । सबसे प्राचीन मंदिर यही है। इसकी सबसे अधिक मान्यता एक समय रही थी ।”
” आज क्या बात हो गई ? ”
गाइड ने कहा “अब लोग इस मंदिर में कम ही जाते हैं । ”
ई रिक्शा चालक के साथ हुआ सत्संग
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हमें भी रविवार के दिन मदन मोहन जी के मंदिर में कोई जाता हुआ नहीं दिखा । एक तरह से वह सुनसान पड़ा हुआ था। लेकिन जब हम सोमवार को उस मंदिर के रास्ते से गुजरे ,तब 10 – 20 लोग मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। इसका अर्थ यह था कि मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है । हमारा उस मंदिर में जाना तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी वह आकर्षित करता रहा ।
हमने ई रिक्शा चालक से पूछा “यह मंदिर कौन सा है “? ई रिक्शा चालक ने अब इस मंदिर के बारे में हमें विस्तार से बताना शुरू किया ” यह मदन मोहन जी का मंदिर है । इसमें भगवान कृष्ण की मूर्ति रहा करती थी। मुगलों के शासन काल में मूर्ति को रक्षा के लिए राजस्थान में जयपुर में भेज दिया गया और इस प्रकार मंदिर की पवित्रता बनाई रखी गई । इस मंदिर में सोने के कलश लगे हुए थे जो बाद में चोरी हो गए । जब चोर उन कलशों को चुरा कर ले जा रहा था तो उसमें से एक कलश यमुना नदी में गिर गया जिसका कुछ पता नहीं चला । दूसरा कलश चोर ले गया तथा चोरी भी नहीं पकड़ी जा सकी। चोरों ने बड़ी चतुराई के साथ कलशों की चोरी की थी । जब मंदिर में आरती होती थी और घंटे बजते थे ,तब वह एक-एक कील ठोंकता जाता था तथा उसने इस प्रकार मंदिर के शिखर तक पहुंचने का कीलों से रास्ता बना लिया ,जो किसी को पता नहीं चल पाया। ”
“यह तो अद्भुत इतिहास है । ” हमने ई रिक्शा चालक से कहा ।
“आपने वृंदावन का वास्तविक इतिहास नहीं देखा। यह अद्भुत घटनाओं तथा प्रवृत्तियों से भरा हुआ है ।”- रिक्शा चालक ने कहा । उसने बताया कि समूचा वृंदावन क्षेत्र संत हरिदास की एक प्रकार से तपस्या – स्थली कही जा सकती है लेकिन “ततिया” क्षेत्र तो उसमें अनुपम ही है। यहां हरिदास जी ने गहरी साधना की थी और उस स्थान पर जाने मात्र से अद्भुत दिव्य अनुभूति होती है । ”
इसी बीच ई रिक्शा चालक को श्वेत वस्त्रधारी एक युवा साधु जाते हुए दीख गए और उन्होंने तत्काल कहा “यह हरिदास जी के अनुयाई हैं / यह “जय श्री हरिदास ” कहते हैं”– रिक्शा चालक ने आवाज लगाकर उनसे कहा “जय श्री हरिदास” । उन्होंने भी यही उत्तर दे दिया ।
अब ई रिक्शा चालक ने हमसे कहा।” एक छंद वृंदावन के इतिहास और श्री हरिदास जी के संबंध में है ।वह भी आपको सुनाना चाहता हूं।”
हम तो सुनने के लिए तैयार बैठे ही थे । हमने कहा “जरूर सुनाइए !”
ई रिक्शा चालक ने सुनाया :-
कुंज बिहारी श्री हरिदास
लेओ खुरपिया खोदो घास
तभी मिले वृंदावन वास
हमने कहा “भैया इसका अर्थ भी बता दो ।”
ई रिक्शा चालक ने कहा “अर्थ तो यह है कि बिना किसी कामना के वृंदावन में रहो ,तभी परमात्मा मिलते हैं । यह जो आप तामझाम और ऊपरी चमक-दमक देख रहे हैं ,यह वृंदावन नहीं है । यह तो केवल मनोरंजन और प्रभाव का प्रदर्शन मात्र है । असली वृंदावन तो साधना – स्थली है ।परमात्मा की शरण में अनंत गहराइयों में खो जाने की कला है ।”
हमारा रामपुर जाने का समय हो रहा था। यह आखिरी क्षणों की मुलाकात ई रिक्शा चालक से हमारी हुई थी ।हमने होटल पहुंचकर ई रिक्शा चालक को कृतज्ञता पूर्वक नमस्कार किया और कहा “असली सत्संग तो आपके साथ रिक्शा में बैठकर हुआ है ।
तीसरी बार गए ,तो हुए बांके बिहारी जी के दर्शन
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वृंदावन यात्रा का वृत्तांत अधूरा रह जाएगा अगर हमने बांके बिहारी मंदिर के दर्शनों के लिए उमड़ने वाली अपार भीड़ का वर्णन नहीं किया । अहा ! भक्ति में डूबे हुए लोग मंदिर के कपाट खुलने से एक – एक दो – दो घंटे पहले से लाइन में आकर लग जाते हैं । यद्यपि मंदिर तक पहुंचने के लिए कई गेट हैं लेकिन इसके बाद भी सारे गेट और उनकी गलियाँ श्रद्धालुओं से ऐसी खचाखच भर जाती हैं कि तिल रखने की जगह नहीं रहती । व्यक्ति से व्यक्ति इतना सट कर खड़ा रहता है कि साँस लेने में भी कठिनाई हो जाती है । लेकिन उत्साह में किसी के कोई कमी नहीं आती । प्रतिदिन यही नजारा लोगों को देखने को मिलता है । हमने तो पहली बार देखा । देखकर दंग रह गए। गलियां इतनी ही पतली थीं, जितनी सन 80 – 82 के दौर में बनारस के विश्वनाथ मंदिर की रास्ते की गलियाँ हुआ करती थीं। बांके बिहारी मंदिर तक पहुंचने वाली गलियों में रिक्शा जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । जब पैदल चलने के लिए मुश्किल आ रही है तो रिक्शा या ऑटो वहां कैसे समा सकता है ?
रविवार को हम सब लोग आधे घंटे से अधिक समय तक लाइन में लगे रहे लेकिन फिर सबकी राय बनी कि मंदिर के दर्शन कल कर लिए जाएं क्योंकि खड़े रहने में दिक्कत आ रही है।इस तरह हम पहले दिन बांके बिहारी जी के दर्शन किए बिना लाइन में से पीछे लौट कर चले गए । बांके बिहारी जी की ऐसी ही इच्छा थी।
दूसरे दिन सुबह सात बजे मैं और मेरी पत्नी बांके बिहारी जी के दर्शनों के लिए चल दिए । हम दो व्यक्ति थे। ई-रिक्शा करके गेट नंबर 3 से लाइन में लग गए । यह वही लाइन है, जहां डाकघर की शाखा स्थापित है। भारी भीड़ थी । जितने आगे ,उतने ही पीछे लोग थे । जैसे ही कपाट खुले ,हम लोग अंदर चले गए । यहां की व्यवस्था इस्कॉन मंदिर तथा प्रेम मंदिर से भिन्न है । यह दोनों मंदिर तो चौड़ी सड़क पर स्थापित हैं। इनके मुख्य द्वार से प्रवेश करने के बाद काफी दूर तक खुला मैदान मिलता है ,जहां व्यक्ति भ्रमण कर सकता है । लेकिन बांके बिहारी मंदिर में कपाट खुलते के साथ ही तथा भीतर जाते ही मुख्य मंदिर आरंभ हो जाता है । यद्यपि मंदिर बहुत छोटा नहीं है। देखा जाए तो काफी बड़ा है । लेकिन भीड़ के सामने मंदिर का क्षेत्रफल छोटा पड़ जाता है। जैसे ही हम अंदर गए और हम बांके बिहारी जी की मूर्तियों की तरफ बढ़े ,हम लोग भीड़ में एक प्रकार से गुम होने लगे। बांके बिहारी जी के दर्शन दुर्लभ हो गए । मेरी राय रही कि इस भीड़ में अगर गिर पड़े तो संभलना मुश्किल हो जाएगा । अतः मंदिर के भीतर आ गए हैं ,यह उपलब्धि भी किसी दिव्य प्रसाद से कम नहीं है । इसी को ग्रहण करके अब वापस निकलते हैं । मैं पत्नी का हाथ थाम कर बाहर निकला। यद्यपि पत्नी पूरी तरह मुझ से सहमत नहीं थीं। जब हम बाहर आए तो पत्नी को अपने जूते सुरक्षित मिल गए लेकिन मुझे अपने जूतों से हाथ धोना पड़ा । मंदिर में जूते चोरी होने के किस्से तो मैंने सुने थे ,लेकिन यह हादसा मेरे साथ पहली बार ही हुआ । खैर, इसे भी बांके बिहारी जी की इच्छा मानकर हम पैदल ही अपने होटल की तरफ चल दिए।
जब होटल पहुंचे तो लिफ्ट से पांचवी मंजिल पर जैसे ही हमने बाहर कदम रखा तो हमारे पुत्र और पुत्रवधू सामने खड़े थे। बोले कि बांके बिहारी जी के मंदिर जा रहे हैं। दरअसल उन्हें निबटने में देर हो रही थी और इसलिए उन्होंने हमें दर्शनों के लिए पहले ही भेज दिया था । कमाल देखिए ,एक घंटे के भीतर ही पुत्र , पुत्रवधू और पौत्र बांके बिहारी जी के दर्शन करके लौट आए। हमने पूछा “क्या दर्शन हो गए ? ” उत्तर मिला “बहुत अच्छी प्रकार से दर्शन हुए हैं। आनंद आ गया ।”
हमारी पत्नी का मन तो पहले से ही बांके बिहारी जी के दर्शनों के लिए अटका हुआ था । उनकी लालसा ने जोर पकड़ा । हम से बोलीं ” चलिए ,बांके बिहारी जी के दर्शन करने चलते हैं । इस बार जरूर दर्शन हो जाएंगे ।”
हमने एक मिनट की भी देर नहीं की। कहा “चलो ,रिक्शा पकड़ते हैं ।”
तत्काल रिक्शा में बैठकर बांके बिहारी जी के मंदिर में प्रवेश किया । भीड़ पहले के समान उमड़ रही थी लेकिन प्रभु की कृपा से ऐसी परिस्थितियाँ बन गई कि हम दोनों को बांके बिहारी जी की अलौकिक छवि के आनंद पूर्वक दर्शन हो गए । यह एक अद्भुत उपलब्धि थी ,जिस के बगैर वृंदावन यात्रा अधूरी रहती ।
अंत में प्रस्तुत है कुछ कुंडलियाँ और कुछ दोहे जो वृंदावन यात्रा को दर्शाते हैं:-
[1]
राधा जी और बाँसुरी (कुंडलिया)
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राधा ने ली बाँसुरी , कान्हा जी से छीन
बोलीं कुछ बातें करो ,क्या बंसी में लीन
क्या बंसी में लीन ,अधर से लगीं बजाने
अब कान्हा बेचैन ,लाड़ के खुले खजाने
कहते रवि कविराय ,तत्व है आधा-आधा
आधे में श्री श्याम , शेष आधे में राधा
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[2]
निधिवन मे रास (कुंडलिया)
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निधिवन में अब भी बसे, युगल दिव्य सरकार
आते प्रतिदिन रात्रि को , करते नृत्य-विहार
करते नृत्य – विहार , रास की गाथा गाते
जग में सबसे उच्च , प्रेम होता बतलाते
कहते रवि कविराय ,सुधा रस पाते जन-जन
धन्य राधिका-कृष्ण ,धन्य है श्री श्री निधि वन
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[ 3 ]
वृंदावन में समाधि हरिदास जी (कुंडलिया)
निधिवन में हरिदास जी ,चिर निद्रा में लीन
तानसेन के गुरु प्रवर ,तन – मन से स्वाधीन
तन – मन से स्वाधीन , दिव्य संगीत सुनाते
ईश्वर को यह भेंट , सिर्फ ईश्वर – हित गाते
कहते रवि कविराय ,छड़ी – मिट्टी का बर्तन
दो पावन पहचान ,.देख लो जाकर निधिवन
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[ 4 ]
बाँके बिहारी मंदिर ,वृंदावन (कुंडलिया)
बाँके बिहारी की श्री , शोभा अपरंपार
भीड़ दिखी हर गेट पर ,दिखते भक्त अपार
दिखते भक्त अपार ,कठिन दर्शन कर पाना
जिस पर कृपा-प्रसाद ,धन्य है उसका आना
कहते रवि कविराय ,सौम्य छवि पल-पल झाँके
टेके जम कर पाँव , दिखे ठाकुर जी बांके
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(5)
वृंदावन (कुंडलिया)
लीला देखो कृष्ण की , जा वृंदावन धाम
हर रजकण पर है लिखा ,जहाँ कृष्ण का नाम
जहाँ कृष्ण का नाम , रास की भूमि कहाई
राधा की अनुभूति , श्वास के सँग – सँग पाई
कहते रवि कविराय , गगन विस्तृत है नीला
नदी पेड़ अभिराम , दीखते करते लीला
कुछ दोहे
(1)
श्वास – श्वास में बस रहा ,राधे – राधे नाम
राधा – राधा रट रहा ,श्री वृंदावन धाम
(2)
वर्णन जिह्वा क्या करे ,सुंदर अपरंपार
बना प्रेम मंदिर भवन ,वृंदावन का सार
(3 )
मंदिर यह इस्कॉन का ,मधुर दिव्य अभिराम
हरे राम हरि कृष्ण का ,कीर्तन है अविराम
(4 )
वंशीवट देखो मधुर ,करो कृष्ण की याद
कौन मधुर संगीत का ,गायक उनके बाद
(5)
बना मदन मोहन यहां ,मंदिर अति प्राचीन
दर्शन उसने ही किए ,सीढ़ी चढ़े प्रवीण
(6)
भीड़ें भक्तों की चलीं, राधा नाम पुकार
वृंदावन की हर गली , राधा का विस्तार
(7)
अभिवादन सब कर रहे ,लेकर राधा नाम
वृंदावन में बस रहीं, राधा आठो याम
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रचयिता : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451