वीर सुरेन्द्र साय
1857 ई. के भारतीय स्वाधीनता संग्राम का अंतिम शहीद : वीर सुरेंद्र साय
सन् 1857 ई. की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के दूरस्थ वनांचलों में फैलाने वालों में वीर सुरेंद्र साय का नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
सुरेन्द्र साय का जन्म संबलपुर (वर्तमान में उड़िसा राज्य में स्थित) के क्षत्रीय राजवंश में खिंडा ग्राम में 23 जनवरी सन् 1809 ई. में हुआ था। उनके पिताजी का नाम धर्मजीत सिंह था। धर्मजीत सिंह के छह बेटे थे- सुरेंद्र साय, ध्रुव साय, उज्ज्वल साय, छबिल साय, जाज्जल्य और मेदनी साय। सभी भाई अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण, देशभक्त और स्वतंत्रताप्रिय थे।
सन् 1803 ई. से ही अंग्रेज सरकार के अधिकारियों ने संबलपुर की राजनीति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था। संबलपुर के तत्कालीन नरेश महाराज साय का सन् 1827 ई. में देहांत हो जाने पर अंग्रेजों को अपना साम्राज्यवादी पंजा फैलाने का एक अच्छा अवसर मिल गया क्योंकि महाराज साय निःसंतान थे। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने उनकी विधवा रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बैठा दिया। वह पूरी तरह से अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली थी।
अंग्रेज सरकार के अधिकारियों के प्रभाव में आकर रानी मोहन कुमारी ने आदिवासियों के सारे परंपरागत अधिकार और सुविधाएँ छीन लीं और राज कर्मचारियों द्वारा आदिवासियों का जमकर आर्थिक शोषण किया जाने लगा। इससे जनता का असंतोष बढ़ने लगा। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने विधवा रानी मोहनकुमारी को अपदस्थ कर उसके दूर के रिश्तेदार नारायण सिंह को राजगद्दी पर बिठा दिया जबकि रानी के बाद राजगद्दी पर सुरेंद्र साय का अधिकार था। क्षेत्र की जनता भी उसे पसंद करती थी।
नारायण सिंह राज परिवार के दूर का रिश्तेदार था। वह अंग्रेजों का पिट्ठू था। उसने अंग्रेज सरकार के अधिकारियों के इषारे पर सुरेंद्र साय के भाईयों और विश्वस्त साथियों को चुन-चुनकर गिरफ्तार करवाया। नारायण सिंह का प्रशासन अत्यंत निर्बल और भ्रष्ट था। ऐसी स्थिति में सुरेंद्र साय ने उसका खुला विद्रोह कर दिया। लखनपुर के तत्कालीन जमींदार बलभद्र देव ने भी उनका खुलकर साथ दिया।
एक रात सुरेंद्र साय अपने साथियों के साथ देवरीगढ़ की गुफा में सो रहे थे। उसी समय नारायण सिंह ने उन पर हमला कर दिया। सुरेंद्र साय तो किसी तरह बच निकले पर बलभद्र देव की वहीं पर हत्या कर दी गई। इस हमले में नारायण सिंह को सहयोग करने वाले रामपुर के जमींदार को सुरेंद्र साय ने चेतावनी दी। इससे क्रोधित होकर उसने सुरेंद्र साय के गाँव को लूट लिया। जवाब में सुरेंद्र साय ने रामपुर पर हमला कर उसके किले को ध्वस्त कर दिया। रामपुर का जमींदार अपनी जान बचाकर भाग खड़ा हुआ। सुरेंद्र साय का यह आक्रमण अंग्रेजों के लिए एक चुनौती था।
अंग्रेजों ने सुरेंद्र साय को गिरफ्तार करने के लिए फौज भेजी और पटना के पास उन्हें घेर लिया। सुरेंद्र साय ने अपने साथियों के साथ तीर और तलवार से अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया किंतु वे ज्यादा देर तक न टिक सके। सुरेंद्र साय को उनके भाई उदंत साय और काका बलाराम साय के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर बिना कोई मुकदमा चलाए आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए हजारीबाग जेल भेज दिया गया।
हजारीबाग जेल में उन्हें कठोर यातनाएँ दी जाती थी। यहीं पर सुरेन्द्र साय के काका बलाराम साय की मृत्यु हो गई। इसी बीच सन् 1849 ई. में राजा नारायण सिंह की मृत्यु हो गई। उसकी भी कोई संतान नहीं थी। इस बार तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने अपनी हड़प नीति से संबलपुर राज्य को पूरी तरह से अपने साम्राज्य में मिला लिया।
30 जुलाई सन् 1857 ई. को हजारीबाग में बर्दवान पल्टन ने बगावत कर जेल की दीवारें तोड़ दी। सुरेंद्र साय अपने भाईयों सहित संबलपुर की ओर भाग निकले। उन्होंने दो माह के भीतर ही लगभग दो हजार विश्वस्त सैनिकों की फौज तैयार कर ली।
7 अक्टूबर सन् 1857 ई. को सुरेंद्र साय ने अचानक ही संबलपुर के किले पर आक्रमण कर दिया। संबलपुर के तत्कालीन कमिष्नर कैप्टन ली ने घबराकर सुरेन्द्र साय के सामने संधि का प्रस्ताव रखा। सुरेंद्र साय ने उस पर विश्वास कर लिया जबकि कैप्टन ली ने उन्हें छलपूर्वक बंदी बना लिया। षीघ्र ही सुरेंद्र साय अंग्रेज अधिकारियों को चकमा देकर भाग निकले।
इस घटना के बाद सुरेंद्र साय ने छापामार युद्ध नीति अपनाई और छिप-छिप कर अचानक ब्रिटिश फौज तथा अधिकारियों पर हमला किया। उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों तथा अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। उनकी ब्रिटिश फौज से कुडोपाली, सिंगोराघाटी, झारघाटी, कोलाबीरा, डिब्रीगढ़, रामपुर, देवरी, खरियार आदि कई जगह मुठभेड़ र्हुइं। पाँच वर्षों तक अंग्रेजी फौज उनके पीछे लगी रही पर, उन्हें गिरफ्तार न कर सकी।
सुरेन्द्र साय की गिरफ्तारी के लिए तत्कालीन अंग्रेज सरकार की ओर से एक हजार रूपए के नगद पुरस्कार की घोषणा भी की गई, किंतु इससे भी कोई लाभ नहीं हुआ। अंततः अंग्रेजों ने उनसे संधि कर लेना ही उचित समझा। अंग्रेजों ने उन्हें सन् 1862 में 4600 रुपए प्रतिवर्ष पेंशन के रूप में देने का वचन दिया और आग्रह किया कि वे अपनी सेना का विघटन कर दे। सुरेंद्र साय सहमत हो गए।
सुरेन्द्र साय ने अपनी सेना के विश्वस्त साथी कमल सिंह को सेना गठित करने के लिए कहा और उसकी मदद करने लगे। जब अंग्रेज सरकार के अधिकारियों को यह पता चला तो उन्होंने सुरेंद्र साय को उनके पुत्र, भाई एवं भतीजों सहित 23 जनवरी सन् 1864 ई. को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पहले रायपुर जेल में रखा गया। बाद में कुछ दिन नागपुर जेल में भी रखा गया। उनकी सारी सम्पत्ति जप्त कर ली गई और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। बाद में नागपुर जेल से हटाकर उन्हें असीरगढ़ के किले में डाल दिया गया।
यहीं पर 28 फरवरी सन् 1884 ई. को वीर सुरेन्द्र साय की मृत्यु हो गई। उन्हें सन् 1857 ई के भारतीय स्वाधीनता संग्राम का अंतिम शहीद माना जाता है।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़