वीर रस की कविता (दुर्मिल सवैया)
उस देश धरा पर जन्म लिया, मकरंद सुप्रीति जहाँ छलके।
वन पेड़ पहाड़ व फूल कली, हर वक़्त जहाँ चमके दमके।
वसुधा यह एक कुटुम्ब, जहाँ, सबके मन भाव यही झलके
सतरंग भरा नभ है जिसका, उड़ते खग खूब जहाँ खुलके।।1
अरि से न कभी हम हैं डरते, डरते जयचंद विभीषण से।
मुख से हम जो कहते करते, डिगते न कभी अपने प्रण से
गर लाल विलोचन को कर दें, तब दुश्मन भाग पड़े रण से
यदि आँख तरेर दिया अरि ने, हम नष्ट करें उनको गण से।।2।।
हम काल बनें विकराल बनें, निकलें जब भी अरिमर्दन को।
रण में अरि देख भुजा फड़के, कर दें क्षण में हत दुर्जन को।
फन काढ़ खड़े रण में अरि जो, पल में कुचलें उनके फन को।
हम शावक विघ्न मिटा पथ के, चरितार्थ करें निज जीवन को।।3।।
नाथ सोनांचली