वीर बर्बरीक
बज चुकी थी रणभेरी
कौरवों अरु पांडवों की,
मानो सज चुकी थी सेनाएँ
देवों और दानवों की।
कारक युद्ध के अनेक थे
राज्य की लालसा या प्रतिशोध की भावना,
ईश (कृष्ण) पर भी भारी था
अब युद्ध को थामना।
इस महासंग्राम के सभी तो भागीदार थे,
कर्म से या धर्म से बन चुके साझीदार थे।
कोई विवश था तो कोई द्वेष से आकुल था,
अपने शत्रु से लड़ने को हर कोई व्याकुल था।
उसी समय भीम-पौत्र भी तैयार हो चल पडे़,
नवा माथ चरण मात के कुरुक्षेत्र ओर निकल पडे़।
सहसा पूछ बैठी माता पुत्र! तुम किस ओर हो,
मुसकराए बर्बरीक पराजय जिस ओर हो।
पा चुके थे वरदान पक्ष जिसका भी लेंगे,
अपनी रण-विद्या से संताप उसका हर लेंगे।
जानते थे बात ये वासुदेव बर्बरीक की,
विजय श्री तो चरणों में होगी इस निर्भीक की।
हो गए अगर विपरीत पांडवों के तो
फिर कुछ नहीं हो पाएगा,
ब्रह्मांड में फिर कोई भी
उन्हें हरा न पाएगा।
सोच मन में ये वासुदेव
बर्बरीक ओर चल पडे़,
रोकने उस महाबली को
स्वयं हरि थे निकल पडे़।
मिले तो चरणों में श्याम के
घटोत्कच सुत गिर पडे़,
दो प्रभु आशीर्वाद ऐसा
धनु से मेरे शत्रु शीश कट पडे़।
उनके तुणीर में केवल तीन बाण थे,
जानते थे श्याम इस महारथी के लिए ये पर्याप्त थे।
फिर भी बोले पुत्र! तीन शरों से क्या कर पाओगे!
कितने शत्रुओं की बलि इनसे तुम चढा़ पाओगे।
बोले बर्बरीक नाथ! संदेह दुख का मूल है,
मेरे एक तीर के लिए ही ये वसुधा सम धूल है।
बोले कृष्ण एक बाण से पीपर पात सर्व छेदो तो जरा,
मान लूँगा केवल त्रय बाण से जीत लोगे तुम धरा।
किया संधान वीर ने चमत्कार हो गया,
बर्बरीक के बाण से हर पत्ता विदीर्ण हो गया।
बोले प्रभु हे पुत्र मेरी एक अभिलाषा है,
तुमसे कुछ माँगने की हिय को मेरे आशा है।
नत हो गए बर्बरीक बोले प्रभु आज्ञा करो,
मुझ दास के पास ऐसा है ही क्या न व्यंग्य करो।
बोले नटखट उस वीर से ये शीश तेरा चाहिए,
और कोई वस्तु न मुझे तुझसे चाहिए।
हो बिना विचलित महावीर ने शीश धड़ से अलग कर दिया,
अपने इस वीर कृत्य से हरि को भी शर्मशार कर दिया।
हो प्रसन्न श्याम ने बर्बरीक को वो वर दिया,
खाटू वाले श्याम के नाम से महाबली को अमर किया।
सोनू हंस