वीर अभिमन्यु
जब कुरुक्षेत्र की समरभूमि में सर शैय्या पर भीष्म हुए ,
तब कुरु कलंक के नैनो में क्रोधाग्नि लगी और ग्रीष्म हुए ,
गुरुदेव बनेगे सेनापति यह चाल चली थी शकुनी ने ,
जिसमे फसकर सब जूझ रहे वह जाल बुनी थी शकुनी ने ,
इस बार चली थी चाल अजब जिसमे न कोई संधी हो ,
गुरुवर द्वारा वह ज्येष्ठ पाण्डु सुत समरभूमि में बंदी हो ,
फिर पांडव सेना में गुरुवर ने ऐसा तांडव नृत्य किया ,
सब समर मुंड से पाट दिया कुछ ऐसा चित्र विचित्र किया ,
निज सेना की यह दसा देख अर्जुन को क्रोध अपार हुआ ,
बज उठी कृष्ण की पांचजन्य फिर गांडीव का टंकार हुआ ,
कौरव सेना के होस उड़े जब गुरुवर का रथ चूर हुआ ,
जो सोचा था वह विफल हुआ सब सपना चकनाचूर हुआ,
फिर कहा द्रोण ने दुर्योधन मै उससे पार न पा सकता ,
अर्जुन के रहते धर्मराज को बंदी नहीं बना सकता ,
फिर कहा त्रिगणो ने मिलकर हम प्रण पे प्राण लड़ायेगें ,
हम अर्जुन को ललकारेगें औ दूर तलक ले जायेगें ,
हम जान रहे है अर्जुन से पा सकता कोई पार नहीं ,
पर इससे बढ़कर मित्र तुम्हे दे सकता मै उपहार नहीं,
फिर क्या था ऐसी नीति बनी जिसको सबने मंजूर किया,
उसने अर्जुन को ललकारा औ समरभूमि से दूर किया ,
अर्जुन के जाते गुरुवर ने फिर कुछ नवीन संरचना की,
जिसका भेदन हो सके नहीं उस चक्रव्यूह की रचना की,
पांडव सेना भयभीत हुई यह देख शत्रुदल सुखी हुए ,
जो सदा शांतचित रहते थे वो धर्मराज भी दुखी हुए ,
निज सैन्य तात को दुखी देख फिर शेरबबर को जगना था,
जो धनी धनुष के बनते थे उनको भी नाक रगड़ना था ,
है उमर अठ्ठारह बरस मगर यह बड़ा धनुष का धन्नू है,
सबने देखा कोई और नहीं यह अर्जुन सूत अभिमन्यु है,
मै इसका भेदन कर दूगां यह भेद गर्भ में सूना हुआ,
दादाजी चिंता दूर करो यह सुन साहस सौ गुना हुआ,
फिर अभिमन्यु के पीछे ही कुछ तेज चले कुछ धीम चले,
कुछ पैदल, घोड़े,रथ सवार ले गदा गदाधर भीम चले,
अभिमन्यु को ना रोक सका वे द्वार तीसरे पार हुए ,
पर आज जयद्रथ के आगे चारो भाई लाचार हुए,
अभिमन्यु ने मुड़कर देखा कोई न पीछे अपना था,
पर विचलित तनिक न वीर हुआ ऐसा ही उसका सपना था ,
कोई एक भिड़ा ,कोई दो दो संग , कोई ले झुंडो का झुण्ड भिड़ा ,
लासो से पटने लगी धरा जब मुंड मुंड पे मुंड गिरा ,
दुर्योधन,दुशासन ,विकर्ण,कृतवर्मा अश्व्थामा को ,
गुरु द्रोण कर्ण को हरा दिया फिर मारा शकुनी मामा को ,
वह कर्ण भिड़ा जो दुर्योधन के विजय की लक्ष्य की आशा था ,
वह कर्ण भिड़ा जो दुर्योधन के अंतर्मन के भाषा था,
वह कर्ण भिड़ा जो एक साथ सौ बाण चलाने वाला था ,
वह कर्ण भिड़ा जो दुर्योधन को विजय दिलाने वाला था,
सबने देखा वह अंगराज रथ सहित धरा पर पड़ा मिला,
कुछ चेत हुआ तो भाग गया वह दूर सभी को खड़ा मिला ,
फिर दुर्योधन हो गया कुपित ले सबका नाम पुकारा है ,
सब इस साथ मिलकर मारो ऐसा आदेश हमारा है,
फिर एक साथ भीड़ गए सात सातो ने ऐसा काम किया ,
रथ तोड़ सारथी को मारा घोड़ो का काम तमाम किया,
तलवार तीर जब टूट गए तो रथ के चक्के उठा लिए ,
उस रथ के टूटे चक्के के कितनो के छक्के छुड़ा दिए ,
यह देख अधम दुशासन ने तब सर पे गदा प्रहार किया,
गिर गया धरा पे वीर तभी पीछे से उसने वार किया,
फिर बारी बारी से सबने उसके सीने पे वार किया ,
सब युद्ध नियम को भूल गए औ ऐसा अत्याचार किया,
सब मायापति की लीला है ,मै कृष्ण लिखूँ घनश्याम लिखूँ,
कितनो को धूल चटाया है ,कितने कुरुवो का नाम लिखूँ,
शब्दों में सहज “सुशीलापन”अब कविता को विश्राम लिखूँ ,
मै उस बालक अभिमन्यु को अब अंतिम बार प्रणाम लिखूँ ,