वीरों की बानगी
प्राची में प्राचीर बना कर
क्या रोक सकोगें रश्मि रथ को।
कांटों की जंजीर बना कर
क्या रोक सकोगें वीरों के पथ को।।
ये कटार-तलवार चला कर
उतार सकोगें पद्मावतीयों की नथ को।
ये माया की मेनका, रम्भा से
क्या तोड़ोगें ईमानदारों की शपथ को।।
सच्चाई पर चलने वालों का
क्या बाल बांका कर सका है कोई।
जब-तब बिन जागरण कर
क्या किस्मत जगा सका है कोई।।
धरती-आकाश एक करके भी
क्या कोई पा सका जिंदगी खोई।
मिट्टी में दबे बीज के जैसे
क्या उगना रोक सका जो बोई।।
चलते हैं जो निर्भय होकर
ऊंचे हिमालय जैसे अभियानों से।
नही घबराते हैं तनिक भी
वे कैसे-कैसे आंधी-तूफानों से।।
झुकते आगे पेड़-पहाड़ बड़े
झुकते नही दिल भरे अरमानों से।
ये ही झुका देते दुनिया को
अपने बड़े-बड़े अभियानों से।।
जान पर खेल करते हो
अत्याचारों का दमन जमाने से।
ऐसे जांबाजों के चलते
दुनिया बाज आती है दबाने से।।
सेवा को रहते हैं समर्पित
नही मतलब है कमाने से।
ये सेवा में समा जाना चाहते
मिट्टी में पहले समाने से।।
~०~
मौलिक और स्वरचित: कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या:०३ -मई २०२४-©जीवनसवारो