वीरांगना
शशि मुख पर घूंघट डाले
आँचल में विरह दु:ख लिए
जीवन के गोधूलि में
कौतूहल से तुम आयी .
नवयौवन में अर्धांगिनी
बनकर तुम आयी
अभी तो मुकुट बंधा था माथ
हुए कल ही मेहन्दी के हाथ
खुली भी नहीं थी लाज की लीर
खुली भी नहीं चुंबन शून्य कपोल
बंद डाक आ गया शरहद का पैगाम ,
भीतर भीतर घुट- घुट कर
तन मन से विरह दुख सहती
वियोग में बैठी प्राणेश के घर
शरहद की ओर सवाँरति नजर
पत्नी बनकर भी मिला न
दपंति जीवन का सुख .
तरूणाई से भरा ह्रदय
नहीं मिटता विरह का दुख
हे ! विरानी सावन तेरा
सुखा ही रहा !!
शरद गम का गर्म ही रहा
लेकिन ,निभा लिया तुमने
वियोगी का विरह कर्त्तव्य
जिस से भारत माता की लाज रही
पता हैं मुझे तेरे विरह जीवन
जिसमे साँस नजर नहीं आती
है एक तत्व जो धड़क रहा हैं
तेरे ह्रदय में दृडविश्वास-का
प्रिय मौन एक तरंग-सा !!!