वीरन के होली कब कहलाई !
वीरन के होली कहलाई !
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जी चाहत हौ , हे सखे ! मन सरोजु बढ़ी जाई ,
घटत-घटत दु:सह दु:ख कटुता , वैरु समूल कुम्हिलाई ।
स्याम सलोने गात सरसमय, चित्त-अनुराग सदा जुड़ जाइ ,
मन-काँचैं नाचे जटिल वृथा , साँचे प्रीत रामु प्रतीति दृढाई !
विकट पीड़ा धरती पर पड़ौ , बिखरे सुखद बसंत सुहाई ,
हे हर ! प्रीत धरौ मन-सदन में , तन की व्याप्त झाईं निराई ।
स्वारथ छोड़ु परमारथु लागे , दें छोड़ कुटिल-कुटिलाई ;
तप से उन्नत आतपु सरै , हरौ अकस-उतपातु ढीठलाई !
अधर धरौं प्रिय के प्रिय पर ,
ओठ पर ओठ पटाई ;
भर-भर आलिंगन फाग विहग के, मृदु स्नेह कपाट सटाई !
फाल्गुन के उत्पात श्रृंगारमय , भानित भास्वित भनत शुभाई ;
दृढ़ता-सौम्यता हो सरस सन्निहित , हरितदुरित प्रभात समाई ।
जब – जब वीरोचित रीत-प्रीत भाव के , गीत-संगीत से होली आई ;
भारत के फूलवारी क्यारी में , बन्धु ! सुवासित रंगों की खुशबू समाई ।
जिहादी नंगा नाचे होली में , खटके धर्मांधो के धर्मांतरण कुटिलाई ;
जब तलक ठोकैं बन कराल द्रोहियन के , अहा ! तब वीरन
के इ होली कहलाई !
✍️ आलोक पाण्डेय