विसर्जन गीत
दर के कपाट मुँदने को हैं, अब खड़े हुए हो अर्चन को।
तुम चले पूजने वो प्रतिमा, जो तत्पर खड़ी विसर्जन को।
तुम जिसको देख रहे हो, ये कुछ पल का ताना बाना है।
मैं हूँ प्रतिमा, इस मिट्टी की, क्षण भर में फिर मिल जाना है।
ये वस्त्र, ये साज सिंगार मेरा, पानी के तल पर तैरेगा।
ये रंग, नक्श, ये रूप मेरा, तस्वीरों में रह जाना है।
और ऐसी “निर्मम बेला” में, तुम लिए खड़े हो दर्पन को।
वो दिन प्यारे अब गुजर चुके, जब मंदिर में स्थापित थी।
चढ़ते थे पुष्प हार मुझको, आरति में ही उत्साहित थी।
हो चुके भोग दुनिया भर के, दिन पूरे होने वाले हैं।
तुम तो तब आए जब मूरत, हर आसन से विस्थापित थी।
मैं निर्मित में खो जाऊँगी, दे धन्यवाद निज सर्जन को।
पर आए हो, तो मुझसे कुछ जाते-जाते लेते जाओ।
जो रही तुम्हारी पूजा में, उस की रज को छूते जाओ।
जाओ! दुनिया को बतलाना, ये दर्शन सच, या झूठा है!
सब शोक यहीं रख दो अपने, मन से हँसते-गाते जाओ!
फेंको गुलाल एक दूजे पर, कर दो पूरा इस तर्पन को।
© शिवा अवस्थी