विष्णुपद छंद
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( विष्णुपद छंद )
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जग को आलोकित करता पर, तम है दीप तले ।
कस्तूरी की गंध मृगों को, छिपकर सदा छले ।।
रश्मि बिखेरे जग में अपनी, जो शशि बना चले ।
वह पीता अँधियारे को जो, बनकर सूर्य जले ।।५
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राधे…राधे….!
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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(छंद मंजूषा से)