विषाद
छाती जकडी हुई है
विषाद के शीत से
मानो कोई भीतर ही भीतर
प्राण घोंट रहा है ।
ये विषाद जैसे
मन को पूरा निचोड़ कर
बताना चाह रहा है
कि अब कुछ भी नहीं शेष
तुम्हारा यहाँ पर।
देखो! इतना निचोड़कर भी
एक बूँद न मिली ।
पर ये प्राण भी बड़े जिद्दी है
किसी न किसी छिद्र से
फिसल जाते है गिरफ्त से ।
समझ नहीं आता कि
ऐसी भी क्या जिजीविषा ?
सब खोकर भी
जाने क्या पाने के इंतजार में
अमरबेल सा ये
असंख्य स्वप्न झुरमुट में
लिपट कर आगे बढ़े जा रहे है।