विषय – मौन
विषय – मौन
शीर्षक – हितकारी मौन
विधा – स्वछंद काव्य
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
मौन तो मौन है एक ही लेकिन इसके स्वरूप अनेक ।
मौन साधक हित साधक अन्यथा सब व्यर्थ ।
हित साधक स्वार्थ साधक मन के हैं प्रकल्प ।
साधु के संग साधुता जैसे सज्जन संग सज्जनता ।
कपटी के संग बैर विराजे जैसे नाग भुजंग ।
तुम मानो या मानो मृत्युलोक के नियमों को ।
ईश्वर सब करवा लेते हैं जो जाने सब देवों को ।
पृथ्वी लोक में भेज दिया तो पाप कटेंगे ये लिख लो ।
कर्म करो जब रीति सहित कोई दुख न देना जीवों को ।
मौन तो मौन है एक ही लेकिन इसके स्वरूप अनेक ।
मौन धारता जो कोई प्राणी हितकारी कहलाता है ।
संस्कार के धारण से वो परोपकारी बन जाता है ।
मन का मौन आत्मा का नियंत्रण शरीर का संतुलन ।
इंद्रिय निग्रह वाणी संयम दृष्टि एकाग्रता श्रवण ग्राह्यता ।
मानो तो मौन के गुण अनेक साधो तो लाभ अनेक ।
न मानो तो बेकार हैं जग में देखो साधन अनेक ।
वाणी का मौन तो जानते होंगे सभी ।
कभी देखा आपने विचारों के मौन को भी समझना ।
एक अकेला मंत्र दिया ईश्वर ने इसको महामंत्र समझना ।
मौन तो मौन है एक ही लेकिन इसके स्वरूप अनेक हैं ।