विषय तरंग
विषय तरंग
विधा पद्य
शीर्षक दिल में कोई तुम सा
लेखक डॉ अरूण कुमार शास्त्री
दिल में कोई होता तुम सा तो जीवन सुखमय होता मेरे यार ।
ये सपना पूरा कब होगा ये सब तो है विधि आधीन , सिर्फ मेरा विचार ।
जग में रहकर जग के रूप में न उलझा ऐसा संभव हो सकना मुश्किल ।
जीवन सुखमय तरंग रहित हो व्यतीत ऐसा संभव हो किसका ये मुश्किल ।
तुम कहते हमको मोह माया से क्या लेना देना पर बात नही जचती प्रियवर।
ये काया आसक्ति में लिप्त नहीं ऐसा होना अस्वाभाविक दिलबर।
मैं मानव हूं तुम भी इंसा दोनों के विचार लगभग दिखते समान ।
तुम काम दग्ध मैं काम रहित ये भाव अनोखा दिखता प्रियवर।
अपनी -अपनी संशायें अपनी -अपनी भाषाएं कोई उत्तर दिशा में रहता है कोई दक्षिण दिशा का वासी है।
लेकिन प्रेम वासना ग्रसित सभी वे आवश्यक अति विशिष्ट आभासी है।
मैं जल तरंग से आकर्षित तुम सितार की झंकार माधुरी से मुग्ध हुए ।
पर गीत संगीत की आस्था के हम दोनों ही आसक्त हुए ।
मेरा जीवन सूखा -सूखा तुम आत्मविभोर तृप्ति में रंगे हुए।
मैं सूखी रोटी सा लगता हूं तुम देसी घी में सने हुए।
मुझमें तरंग का अभाव प्रिय मुझमें उत्थान पतन न शुरू हुआ ।
तुम संस्तृप्त सुसंस्कृता लेकिन पूरे भाव में मझे हुए ।
तुम मुस्काते तो पुष्प झड़ें मैं बोलूं तो भी अनाचार।
तुम खट्टे मीठे व्यंजन मिष्ठान्न से मैं बैगन भजिया बिना स्वाद ।
दिल में कोई होता तुम सा तो जीवन सुखमय होता मेरे यार ।
ये सपना पूरा कब होगा ये सब तो है विधि आधीन , सिर्फ मेरा विचार ।