“विश्वास”
“विश्वास”
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ट्रेन तेज रफ्तार से गुजर रही थी। गझण्डी टीसन के सिग्नल पर ट्रेन धीमी हुई तो खिड़की से बाहर झांक कर देखा उसने… सबकुछ बदल गया! आदमी तो आदमी पेंड़-खुट भी नहीं पहचाने जा रहे… कोडरमा अगला टीसन था….मन मे एक भय सा समा गया…पता नहीं मेरी माटी भी पहचानेगी या नही… गमछे के कोर से डबडबाई आँखों को पोंछा और सीट पर बिछाया हुआ अपना चादर उठा कर लपेटने लगा। उसे अगले स्टेसन पर उतर जाना था।
पच्चीस साल कम नहीं होते। उसे याद आया, इसी कोडरमा टीसन के समीप रोटरी क्लब द्वारा मैट्रिक की परीक्षा में सूबे में टॉप आने पर सम्मानित किया गया था, उस पे जिले के नेता मंत्री लंबे-चौड़े भाषण दिए थे तो गर्व से उसका सीना चौड़ा हुआ जा रहा था और गांव के छोकड़े उसे घर तक कंधे पर उठा कर ले गए थे। गणित और विज्ञान के सारे सूत्र मुंहजबानी याद थे। का कहें, यही पढ़ाई खा गयी उसकी जिंदगी…
इकलौता बेटा था अपने माँ-बाप का, सात बेटों के मर जाने पर आठवां हुआ था वह, सो उसकी माँ ने उसका नाम कन्हैया रखा था। बाप दस बीघे खेत का मालिक था सो खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। हमेशा दो-तीन जोड़ी गायें रहती थी दुआर पर, गाय का दूध पी कर कन्हैया शरीर से हट्टा-कट्टा और कुशाग्र बुद्धि का बचपन से ही था। बाप की इच्छा थी कि बेटा डाक्टर इंजीनियर बन कर कुल-खानदान का नाम रौशन करें तो उसने नाम किया भी।
तिलैया, जयनगर, मरकच्चो,कोडरमा,हजारीबाग और जाने कंहा कंहा डिबेट और क्विज प्रतियोगिता में ढेरों पुरस्कार जीत कर मैडल और ट्रॉफियों का ढेर लगा चुका था कन्हैया! जिले-जवार के बच्चो का वह आदर्श बन चुका था।
कन्हैया का नामांकन संत कोलम्बा कॉलेज,हजारीबाग में आईएससी में हो गया। उस जमाने में आज की तरह कुकुरमुत्ते की तरह सैकड़ो की संख्या में हर गली चौराहे पर कोचिंग सेंटर ना हुआ करते थे,कोचिंग ट्यूशन की प्रथा नाम-मात्र की थी। गिनती के एक दो कोचिंग और कुछेक प्राइवेट ट्यूटर रहा करते थे। हजारीबाग के बाबू नित्यानंद जी का बड़ा कोचिंग था,जिसमे उस जमाने मे दो हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ते थे। कन्हैया की ख्याति बाबू नित्यानंद राय के कानों में पड़ी तो बाबू साहब ने पूरे सम्मान के साथ अपने कोचिंग में कन्हैया को गणित और विज्ञान के शिक्षक के तौर पर रखा। बेटे की तरह मानते थे बाबू साहेब…. तीन शिक्षकों के बराबर अकेला कन्हैया को मानदेय मिलता था..! वह ऐसा युग था जब सौ में नब्बे मनई निष्ठावान हुआ करते थे, एक ही कोई धूर्त होता था। कन्हैया भी बाबू साहेब के प्रति निष्ठा निभाता था।
राय साहेब ने ही कन्हैया की शादी कराई और खुद अपने अम्बेसडर कार पर बैठ कर उसकी बारात में गए थे। बियाह के बाद राय साहेब ने दो महीने की छुट्टी दी कन्हैया को, “जाओ अपने गांव घर में रहो, तुम्हारा तलब-तनखाह समय से तुम्हारे घर पहुँच जायेगा।”
कन्हैया जब गाँव में आता तो गाँव के सभी लड़कों का नायक बन जाता था। लड़के उसके ऊपर भिड़े रहते, “भइया तनिक फिजिक्स का न्यूमिरिकल सिखा दो न… भइया दिन में कित्ते घंटे पढ़ते थे कि टॉप किये तनिक बताओ न…” कन्हैया दिन भर लड़कों को गणित और विज्ञान के गुर सिखाता रहता। दो महीने की छुट्टी में उसके दिन बड़े मजे में कट गये।
कन्हैया वापिस कॉलेज आया। कन्हैया के कॉलेज के बड़े नामी विज्ञान के प्रोफेसर थे डॉ जय कुमार सिंह । उनकी भी डिस्ट्रिक्ट मोड़ पर कोचिंग थी…पैतृक घर तिलैया में कन्हैया के गांव में ही था….कन्हैया के घर-परिवार सब से परिचित थे..! कन्हैया पर बड़े दिनों से नजर थी उनकी, सो एक दिन कह पड़े- “का कन्हैया, कबतक जी हजुरी करते रहोगे रायसाहब की? अरे हमारे यहां आओ अपना घर है।”
कन्हैया ने मुस्कुरा कर कहा- “रायसाहब का साथ तो इस जनम में नही छुटेगा सर, बेटे की तरह मानते है वो…..उनसे नमकहरामी नही कर सकता….
सिंह साहेब को कन्हैया से ऐसे दो टूक उत्तर की आशा नहीं थी, बात लग गयी सिंह साहेब को।
चार-पाँच दिन के बाद जब कन्हैया अपने हॉस्टल में बैठा अपने सहपाठियों के साथ बतकही कर रहा था, तभी डॉ जय कुमार पधारे और बोले- “ए कन्हैया, एगो निहोरा है, संकारोगे?”
निहोरा क्या, आदेश करिये सर।” कन्हैया ने लपक कर उत्तर दिया।
– “देखो ना, हमारे कोचिंग का पैसे रुपये का हिसाब बहुतों दिन से पेंडिंग है तनिक एकाउंट का हिसाब किताब कर देते तो बड़ा अच्छा होता, जानते ही हो अब चोर-चाइ का जमाना है, तो डर लगता है। सोचा तुमसे ज्यादा भरोसा किस पर करें, हमे होली के छुट्टी में गांव भी जाना है, लौटने के पहले हिसाब किताब कर देते तो बड़ा उपकार होता..!
“आरे सर आप निफीकिर हो कर जाइये, आपके आने तक सब सम्हाल लेंगे।”
डॉ जय कुमार निफ़ीकिर हो कर तिलैया अपने गांव चले आयें।
एक हफ्ते बाद डॉ साहेब लौट आये और कन्हैया ने उनको सारा हिसाब किताब देकर परीक्षा की तैयारी में लग गया।
परीक्षाएं खत्म हुई तो कन्हैया इंजीनिरिंग की प्रवेश परीक्षा में बैठ गया। इंजीनिरिंग की परीक्षा का परीक्षाफल आ गया, कन्हैया पूरे सूबे में द्वितीय स्थान लाया और अखिल भारतीय स्तर पर बारहवाँ स्थान। पूरे गांव-जवार में कन्हैया के बापू ने घूम घूम कर मिठाईयां बांटी थी।
पर ये क्या, इंटर की परीक्षा में वो फैल हो गया था….डॉ जय कुमार ने खुन्नस में विज्ञान के प्रायोगिक परीक्षा में कन्हैया को फैल कर दिया था…कन्हैया का मानो खून सुख गया था…..
इसी बीच कन्हैया के खिलाफ वारंट निकल गया….डॉ जय कुमार ने कन्हैया पर कोचिंग के हिसाब किताब में बीस हजार रुपिया गबन का आरोप लगा एफआईआर कर दिया था….
कन्हैया का मनोदशा वैसी हो गयी थी जैसे काटो तो खून नही। गांव भर में कन्हैया की थू थू होने लगी, सारी कमाई प्रतिष्ठा क्षण में धूमिल हो गयी। उसने गिड़गिड़ाने की कोशिश की, पर सुने कौन? सबने कहा- जय बाबू इतने प्रतिष्ठित व्यक्ति है प्रोफेसर है भला झूठ बोलेंगे, इसी के मन में पाप समा गया है।
उस रात कन्हैया के पास गांव छोड़ कर भाग जाने के आलावा और कोई चारा नही था। घर छोड़ते समय एक माह की गर्भवती पत्नी से बस इतना कहा था- मैं आऊंगा जरूर, भरोसा रखना…
पर अपने दिलाये गए भरोसे पर खरा उतरने की हिम्मत नही हुई उसकी! इन पच्चीस सालों में दो बार वह गांव तक आ आ कर लौट चूका था।
इतने दिनों तक वह कहाँ रहा और क्या किया यह याद रखने की इच्छा नहीं उसकी, पर अब वह थक चूका था। उम्र अभी 44 या 45 की होगी पर 60 के बूढ़े जैसा लगता था कन्हैया…
ट्रेन कोडरमा टीसन पर पहुँच चुकी थी। गाड़ी से उतर कर वह पैदल हीं गाँव की ओर बढ़ रहा था। वह चाहता था कि रात हो जाय तो अँधेरे में घुसे अपने गाँव में… पर कदम रुकना नही चाहते थे। अब कुछ ऐसे चेहरे दिखने लगे थे जिन्हें अंदाजा लगा कर पहचान पा रहा था वह। सायकिल से लौटते एक बुढ्ढे को देख कर अनायास निकला उसके मुह से- जगदीश!
वह बोल पड़ा, ऐ जगदीश! रै जग्गुआ…
सायकिल सवार ने ध्यान से देखा उसे, “जग्गुआ तो बस मुझे कन्हैया कहता था, तुम कन्हैया तो नही? हाँ तुम कन्हैया ही हो…” उसने लपक कर उसका हाथ पकड़ा। अब कन्हैया चुप था, दोनों थस्स से जमीन पर बैठ गए।
जगदीश ने बताया- तुम्हारे जाने के तीन चार-पाँच साल के बाद ही तुम्हारे बाबूजी मर गए, पर अंतिम बेला तक कहते रहे “मेरा कन्हैया चोर नही है।” दो तीन साल हुए, तुम्हरी माँ भी गुजर गयी।
कन्हैया की आँख बह चली थी, बोला- “और?”
और… चार पांच साल पहले डॉ जय कुमार के लड़कों ने तुम्हारा खेत वापस कर दिया। सब को बताया उनलोगों ने कि तुमने बेईमानी नही की थी। कोढ़ी हो कर मरे डॉ जय कुमार।
– और?
-और जानने के लिए घर चलो। हाँ वो दूर खेत में जो लड़का कुदाल चला रहा है न, तुम्हारा बेटा है…
कन्हैया ने देखा दूर खेत में कुदाल चलाते नौजवान को, पीछे से लगा कि जैसे कन्हैया खुद चला रहा हो कुदाल। बोला- जगदीश, ये मेरे ही खेत हैं न?
हाँ रे, तेरे ही हैं।
और इसकी माँ ?
बीसों बार आये तेरे ससुराल वाले उसे बुलाने पर नहीं गयी। कहती रही, “वे कह के गए हैं कि आऊंगा, भरोसा रखना। मैं नही जा सकती।”
कन्हैया ने मुह में गमछा का कोना ठूस लिया था पर रुलाई का वेग रोक नही पा रहा था।
लगभग दौड़ते हुए पहुँचा अपने घर। देखा एक बुढ़िया धान फटक रही थी।
आहट पा कर देखा उसने अजनबी की ओर, और देखती रही देर तक…
उसके मुह से बस इतना निकल- तहार विश्वास सारा जिनगी खा गइल हो सुगउ… और चिंघाड़ उठी।
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