विश्वास
“विश्वास”
काटों की बस्ती में…
फूल सजोने हम गये
मिली छुपी हुई हाय-हाय
दर्द की गर्दिश में।
कोई पास नहीं है
फिर भी….
है बार- बार गर्जन
शायद ये बादल की हँसी है
जग के दग्ध हृदय में।
घोर-घोर है मूसलधार
वर्षण….
बुद्धि-विवेक का हो गया
अपहरण….
मलिन हृदय में बैठी कालिमा
हर मुखोटों में बसी अलग प्रतिमा।
पर न होंगे इतने अधिर
हारेंगे नहीं जीवन का दाँव
विजयी मानवता ही होगी
है खुद पर अगाध विश्वास।
इन काटों में भी नया इतिहास बनायेंगे
प्रेम के सुमन सौरभ बरसायेंगे।।
– रंजना वर्मा