विलाप
विकास के एक-एक
आयाम चढ़ते गये
नेपथ्य से विनाश की
आवाज अनवरत
अनसुनी करते रहे।
अंतिम पायदान पर
जैसे ही कदम रखा
हे भगवान ! यह
क्या और कैसा संसार
दीख रहा
जिन उपादानों के
सहारे हम विकास की
सीढियां चढ़ रहे थे
उनके गादो से आकाश
पूरा काला हो रहा
समुद्र भी रुदन कर रहा
जलचरों का मन भी
विकल हो रहा।
नदियां भी विलाप
करती समुंद्र में
मुसलसल समा रही
अपने जनक जलधि से
पुनः धरा पर जाने से
मना कर रही
हाथ जोड़ बस अपने
अंक में रखने की
विनती कर रही।
निर्मेष
मानो एक शिशु
माँ की गोद मे
जैसे आह्लादित रुदन
करता रहता है
पर जीवन का
सर्वोत्तम सुख भी
जैसे भोगता रहता है
कष्ट कितना भी हो
पर उसे स्वर्ग से कम
बेशक वह नही
समझता है
उसे कुछ और
रिझा नहीं पाता है
माँ से शिशु का जैसे
यह नाता है
वैसा ही साथ नदी
को समुंद्र का भाता है।
निर्मेष