विरोध का दंगात्मक चरित्र
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राजनैतिक विरोध का चरित्र दंगात्मक हो तो,
प्रजातांत्रिक अनुशासन का है स्खलन।
नेताओं का ही नहीं आदमी का भी है
निम्न दर्जे का मानसिक पतन।
विरोध का राजनैतिक स्वरूप है तार्किक बहस।
हो बहस का स्वरूप प्रतियोगितात्मक अस्वीकार्य।
हो बहस का लक्ष्य,उद्देश्य सर्वजन हिताय।
सदन का सत्र कौरव का सभा स्थल नहीं है।
तब्दील करने में इसे मशगुल लोग शत्रु ही है।
सर्कस का सत्र भी नहीं है सर्कस का शिविर भी नहीं।
क्यों हैं प्रजाजन का प्रजातन्त्र मतदान करने तक ही सीमित।
हर सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक कौन करे इसे जीवित।
राजनीति प्रजा का अधिकार हो प्रजा का तिरस्कार नहीं।
राजनीति को राजतंत्र का लगने मत दो लहू का स्वाद।
परिणाम होगा प्रजा का सारे लहू का हो जाना प्रसाद।
शासित की परिभाषा से ‘प्रताड़ित होना’ मुहावरा हटे।
व्यवस्थाओं से निरीहता का सारा झूठा प्रपंच छंटे।
सत्तात्मक सोच की उपज है सारे सुधारों का विरोध।
सुधारकों के व्यक्तित्व से टकराकर नष्ट हों सारे प्रतिरोध।
विरोध का सारा पथ उज्जवल हो और प्रकाश से सराबोर।
सुधारों का पहिया चले निर्बाध उस पथ पर बिना छोर।
प्रजातन्त्र जीवित नहीं बरकरार रखने का प्रण लेना चाहिए।
और दंगात्मक विरोधों का, हर प्राण लेना चाहिए।
सत्ता के हर निर्णय की समीक्षा राजनैतिक नहीं,प्रजातांत्रिक हो।
सारा विश्वास प्रजा में हो सत्ता के लिए राजतान्त्रिक नहीं।
वरिष्ठ सदन की श्रेष्ठता संख्या नहीं श्रेष्ठ जनों से हो स्थापित।
विधेयक हर मानवीय पहलू पर,यहाँ अग्नि-परीक्षा से हो परीक्षित।
हमारी रौशनी चुराने वालों को संविधान करे दंडित और अनुशासित।
राजनीति समग्र नीतियों से चुनकर आयें,मानववादिता से संचालित।
दंगात्मक विरोध बंद हों, विरोध दंगा में न हो परिवर्तित।
विरोध निरंकुश न हो पाये विरोधी हों संस्कार से शिक्षित।
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