विरह
सुना है धरती से विदा होने वाले लोग ,
सूर्यास्त के बाद विचरण करते हैं आकाश में तारे बनकर
मैं इन अनगिनत तारों में कहाँ देखूं तुम्हें .. ?
इन तारों में तुम कहीं भी नज़र नही आते,
तुम्हारा इस संसार से विदा होने के बाद
मेरे पास एकत्र तुम्हारी स्मृतियों को
मैं खुद से दूर कैसे करूँ ?
इन्ही के सहारे तो मैंने एकांतवास में रहना सीखा है,
नहीं हो पायेगा मुझसे…
हाँ मैं खुश हूँ .. लेकिन उतना नहीं..
जितना मुझे होना चाहिए था,
जैसे धनुष से बाण छूटने के बाद कुछ देर तक
उसकी प्रत्यंचा में थरथराहट होती है …
तुम्हें स्मरण करते ही ,
मेरे हृदय में भी वैसा ही कम्पन होता है …
कई शाम गङ्गा तट से,
जलते दीपक प्रवाहित किये हैं तुम्हारे लिए..
तुम तक पहुँचे भी होंगे या नहीं..
खैर अभी कई जिम्मेदारियाँ निभानी है मुझे
सब कुछ निभा कर आऊँगा तुम्हारे पास
फिर साथ में सैर करेंगे गगन मंडल में तारे बनकर,
और टिमटिमायेंगे इस धरा को देखकर…