विरह
इन्द्रवज्रा छंद
मापनी-२२१ २२१ १२१ २२
पातीं लिखूँगी हर रोज ऐसे।
तेरी करूँगी नित खोज ऐसे।
यादें सताती दिन रात तेरी।
आँखें भिगाती हर बात तेरी।
आओ सुनाये मन की व्यथा को।
अंगार-सी सावन की कथा को।
आओ तभी तो तन त्राण पाये।
साँसें तुम्हीं से अब प्राण पाये।
पीड़ा विषैला हम को सताये।
कैसे बताओ अब नींद आये।
मैं बावली-सी बिखरी हुई हूँ।
आँखे भरी ज्यो बदरी हुई हूँ।
मैं दीप आशा हिय में जलाऊँ।
मैं सेज क्रीड़ा सुखका सजाऊँ।
ऐसे हमेशा दिल को न तोड़ो।
जिन्दा रहूँ काबिल ही न छोड़ो।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली