विरह वेदना (मुक्तक)
विरह वेदना
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बनी मैं दीप की बाती सनम दिन रात जलती हूँ।
बहाकर प्रीत नयनों से तुम्हारी राह तकती हूँ।
दिखा कर स्वप्न आँखों को भुला कर प्यार बैठे हो-
सहूँ कैसे विरह ज्वाला मिलन की आस पलती है।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी (मो.-9839664017)