विरह पीड़ा
है विरह की पीर
करुणा
स्याही बनकर गीत लिख दो
जिसमें मेरी हार हो
उसमें उनकी जीत लिख दो
भावनाएंँ अब विखंडित
हो रही मेरे हृदय में
जिसमें स्नेहिल चिर पाकर
वो खुशी से झूमती थी।
व्योम में है व्याप्त अब
बादल व्यथा वृष्टि को आतुर
जिसमें मेरी जान चंँदा बन
निशाभार घूमती थी।
है कठिन लिखना मगर
सच को तुझे स्वीकारना है।
जिससे मुझको अब घृणा है
उसको ही मनमीत लिख दो।।
है विरह की पीर
करुणा
स्याही बनकर गीत लिख दो…..2
एक कवि मन प्रेम की
अवधारणा को जानता है
और प्रियतम के हृदय को
स्नेह मंदिर मानता है।
किंतु जब आहत करे प्रियतम
कमल की पंखुरी को।
प्रेम के तृष्णित अकिंचन
भिक्षुकों के अंँजुरी को।
तब समर्पित प्रेम को लिखना
वृहद अपराध करना।
और निश्छल मन सदा
भोगे व्यथा, यह रीत लिख दो।।
है विरह की पीर
करुणा
स्याही बनकर गीत लिख दो….
एक दिन की बात फिर से
याद आई है अचानक।
जिसकी त्रासक सिसकियों से
सन्न है पावन कथानक।
उंँगलियोंँ के मध्य ऊंँगली
आत्मा को जोड़ती थी
और पलकें बंद होकर
बंँधनों को तोड़ती थी।
कल्पनाएंँ क्या पता
कैसे अभिशापित हुई अब?
मेरे उत्कर्षी सपन को
भाग्य के विपरीत लिख दो।।
विरह की पीर
करुणा
स्याही बनकर गीत लिख दो….
दीपक झा “रुद्रा”