विरह की पीड़ा जब लगी मुझे सताने
विरह की पीड़ा जब लगी मुझे सताने।
लगने लगे अपने प्रिय भी मुझे बिराने।।
जो लगती थी,मुझे तरु की शीतल छाया।
वो अब जला रही है मेरी निर्मल काया।।
खुली खिड़की से जो बहती थी मंद हवायें।
सता रही मुझे ऐसे जैसे कोई बैरन सताये।।
कोयल की मृदु बोली जो कभी थी भाती।
वही कोयल की आवाज आज है सताती।।
होठों की लाली जो प्रिय लगती थी मेरी।
पिया के न आने से वो बैरन बनी है मेरी।।
आंसू बहाकर अंखियां व्यथा सुनाती है मेरी।
आ जाओ अब सैया रात हो गई खूब अंधेरी।।
आर के रस्तोगी गुरुग्राम