विरह का खेल
रेत के समान सरक गया
यह वर्ष भी जीवन का,
जितना समेटना चाहा इसे
उतना ही बिखरता गया।
कभी खुशी के पल आये
कभी अवसाद भी आया,
यादों के फलक पर प्रिये
तेरा विरह भी खूब भाया।
कई छंदों की उत्पत्ति व
कई मुक्तकों का अस्तित्व,
हाँ तुम ही तो प्रेरणा थी
निखारने को मेरा कृतित्व।
तेरा विरह तो बहाना था
लक्ष्य कुछ और ही रहा,
मुझे तो अपने लेखनी को
समझो बस चमकना रहा।
तेरे विरह की ढाल पर
आलोचनाओं के तलवार,
कुछ भी बिगड़ नही पाया
होते रहे वार पर वार ।
हाँ मैं स्वार्थी था बेशक
विरह को भी भजाता रहा,
सच मे दिल तड़पता था
या खुद को भरमाया था।
विरह का नकली खेल यह
अभी तक खेलते खेलते,
प्रिये थक गया हूँ सच अपने
जज्बात को बेचते बेचते।
प्रारंभ के कुछ समय तो
सच में मैं अवसादित रहा,
पर रचनाओं पर सार्थक
प्रतिक्रिया से आलोकित भी रहा।
बाद में जब इन बदलाव से
स्वयं को दूर करना चाहा,
समझ मे आया अरे मैं तो
सच में विरह से पीड़ित रहा।
आज सोचता हूँ जब मैं
इन जज्बातों के खेल को,
भीड़ से अलग पाता हूँ
निरापद अपने आपको।
यादें बेशक सुनहरी नही
मेरी इस बीते साल की,
संकल्प एक नया लेकर
स्वागत है इस साल की।
स्वयं को स्वयं में तलाशता
निर्मेष एक नये आगाज से,
अब दूर कर लिया स्वयं को
मिथ्या प्रचार के इस खेल से।
निर्मेष