विरहिणी
कान्हा तुम अति बडभागी
तुम्हरी प्रीत सब मन लागी
न बनो निष्ठुर अविनाशी
विरहिणी दरस को है प्यासी
ज्यों तडपे जल बिन मछरी
त्यों तुम बिन विरहिणी
पतंगा करे बाती संग जैसी प्रीत
चंदा करे चकोरी संग जो प्रीत
यह मन ठानी कुछ ऐसी ही रीत
कान्हा सब सुख बिसराए तुम बिन
विरह की अग्नि बाण चलाए न रैन कटै न दिन
कस्तुरी का मृग ज्यों फिर ढूँढे घास
व्याकुल मन लगाए त्यों तुम्हरी आस
सगुण साकार रूप तिहारा
हर भक्त जाए बलिहरा
चंचल छवि हर अन्तर्मन सजी
विरहिणी की व्यथा दुर करो प्रभूजी