विन्यास
डा . अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* विन्यास *
आ बरसों से उलझी
तेरी वेणी को दे दूँ मैं
स्निग्धता अपने प्रेम की
कर दूं मैं विन्यास केशों का
आ बरसों से उलझी
मस्तक की सिलवटों की
उल्झन सुल्झा कर
दे दूँ मैं आराम तनिक सा
कर दूं मैं विन्यास केशों का
नहीं देखना तुम मुझको
शंकित नयनो से री बाला
मैं तो हुँ एक सहज समझ
से उद्द्रित सोच का बन्दा
साथी कह ले सहयोगी कह ले
भाई मित्र सखा समझ ले
या फिर मुझको तु नर के रुप में
कह ले नारी का रखवाला
आ बरसों से उलझी
तेरी वेणी को दे दूँ मैं
स्निग्धता अपने प्रेम की
कर दूं मैं विन्यास केशों का
नहीं चाहिए रुपया पैसा
ना ही कोई उपकार करुंगा
मैं तो अपने पूर्व जन्म के
बस पापों का त्याग करूंगा
आ बरसों से उलझी
तेरी वेणी को दे दूँ मैं
स्निग्धता अपने प्रेम की
कर दूं मैं विन्यास केशों का
तुझको भरोसा करना होगा
डर को त्याग कर जीना होगा
मैं कोई अनजान नही हूँ
इक मौका तो देना होगा
आ बरसों से उलझी
तेरी वेणी को दे दूँ मैं
स्निग्धता अपने प्रेम की
कर दूं मैं विन्यास केशों का
मेरा आचरण मेरी वाणी
कह देगी नयनो से कहानी
पश्चाताप की अग्नि परीक्षा
का हुँ मैं एक अनुराग
आ बरसों से उलझी
तेरी वेणी को दे दूँ मैं
स्निग्धता अपने प्रेम की
कर दूं मैं विन्यास केशों का