विधु की कौमुदी
दिन दिन बीते प्रेम के,
दिन दिन घट गयी प्यास,
एक दिन वो फिर आ गया,
जब प्रीत बची न आस…
एक पूनम का चाँद था,
एक बिखरी उसकी चाँदनी,
तिल तिल घटते आ गयी,
लो आज कुहू की यामिनी…
उदय अस्त के चरण विकट,
प्रीत में भी वो हुये प्रकट,
बिछड़ी विधु से वो कौमुदी,
साथ रहे जो सदा निकट…
सुख दुख को आना जाना था,
मिलन बिछोह बहाना था,
कुछ और नियति की मंशा थी,
कुछ और ही उसने ठाना था…
© विवेक’वारिद *
कुहू-अमावस, यामिनी-रात, विधु-चंद्रमा, कौमुदी-चांदनी