विधुर विरह
विधुर विरह
फुट रही है आंखें मेरी,फुट रहा अब है कान
कहां होगी,कैसे होगी,मेरी अंजुलता का प्राण
कहते हैं लोग सभी, अभी कलि काल सबेरा है
विधुर के तीब्र नजरों में,सुरज का प्रकाश अंधेरा है
तड़फ रहा है,दिल विधुर का,अबआंख से बरसे पानी
मर न गया साथ तुम्हारा,कैसा हुआ, यह प्रेम कहानी
पल पल अब तेरा याद सताये ,सुबह हो या शाम
कहां होगी कैसे होगी अब मेरी अंजुलता का प्राण
चीरकर देखों दर्द विजय का, अब घुटन सा पीड़ा है
मर जाता साथ तुम्हारा,पर अब बच्चा मेरा हीरा है
छोड़ चले अमुल्य निधि, बच्चों के खातिर जिता हूं
जीने का अब चाह नहीं,अंखियन का नीर पीता हूं
आंखों का आंसू पोंछ पोंछ,तड़फन का नीर पीता हूं
कलिकाल के म हाथ युद्ध में,लाश बनकर जीता हूं
विधुर दर्द कौन समझे , केवल समझ पायेगा राम
कहां होगी कैसे होगी,अब मेरी अंजुलता का प्राण
धधक रहा था अंगारों का,धूं धूं करती थी चिंता
देख रहा था तुम्हें जलते, विधुर विरह का गीता
भौंक रहा था स्वान सामने,मरघट गाती थी गान
कहां होगी कैसे होगी अब मेरी अंजुलता का प्राण
डां विजय कुमार कन्नौजे अमोदी आरंग ज़िला रायपुर छ ग