विधाता छंद पर आधारित एक गीतिका
किनारे इक समंदर के निशा के ज्वार को देखा।
पटकती सर किनारे पर लहर के प्यार को देखा।1
ज़माने में जिधर देखो वहीं शक्लें बदलती हैं।
कहीं तकरार देखी तो कहीं इसरार को देखा।2
नहीं है मोल अब कोई किसी इंसानी’ रिश्ते का।
धरा पर आज तक हमने खुले व्योपार को देखा।3
सुरक्षित हैं नहीं बहने धरा पर राम कृष्णा की
शहर से गाँव तक हमने बड़े व्यभिचार को देखा।4
यहां अधिकार सब चाहें भुला कर्तव्य सब अपने।
उन्हें सरकार से ही मांगते अधिकार को देखा।5
विधाता ने रची पावन ज़मीं इंसान की खातिर।
उसी मानव के’ द्वारा अब धरा संहार को देखा।6
चलो हम आज सब मिल कर सुधारें अपनी’ गलती को।
ज़माने में नये उत्साह के संचार को देखा।7
प्रवीण त्रिपाठी
03 दिसंबर 2016