विदाई
ऊपर वाले , क्या बेटी की तकदीर बनाई।
जन्म लेते ही पराया धन कहलाई ,
ससुराल में जाते ही, सुना अपने घर से क्या सीखकर आई
न इस घर की, न उस घर की,
पर इज़्ज़त दोनों घर की कहलाई ,
सबने पूछा क्या लाई, किसी ने नही पूछा क्या छोड़ आईं,
विदाई के वक्त भी, बात बेटी को ही समझाई ।
रिश्तों की डोर भी ,बेटी के हाथ थमाई।
पिता से नाम ,पति से पहचान ,
उम्रभर अपनी पहचान ,कहि ना पाई।
बिन शादी के बेटी को, तानो की माला हर रोज पहनाई
दुनिया बदली ज़माना बदला पर सोच सबकी पुरानी पाई
बिन शादी के क्या बेटी की कोई पहचान नही ,
कियो बेटी की विदाई को समाज ने मजबूरी बनाई।
कभी समाज के नाम पर ,कभी संस्कारो के नाम पर,
हर बार कुर्बानी बेटी के हिस्से मे ही आई
शादी एक संस्कार है ,अपनी मर्ज़ी और रिश्ते का प्यार है
बेटी की विदाई को समाज ने क्यो मजबूरी बनाई