विडम्बना
एक काला युग
लेटा है
तीरों की
शैया पर भीष्म
इस उम्मीद में
आ कर
डालेगा दो बूँद
जल कोई
थके-मांदे है
सैनिक अनेक
कोई कर रहा
आर्तनाद
अपने अपनों
के लिए
व्यस्त हैं
अगली रणनीति में
कौरव – पांडव
बिछा रहा
अगली बिसात
शकुनि
लहू से नहाया है
रणक्षेत्र
उत्सव मना रहे
गिध्द चील यम
मृत्यु के आगोश
में समा रहा
एक युग
चमक रहे
मशालों की
रोशनी में
तीर औ भाल
है प्यासे
लहू और लहू
चिन्ता
भीष्म की
बदनाम होगा
ये युग काला
त्याग दूंगा
मैं , तो
ये देह नश्वर
कहलाएगा
निर्लज्जता, हठ, अह॔
षड्यंत्रों और
तीर भालों का
ये महाभारत
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल