दुविधा
रोजमर्रा की आपाधापी में हम
कठपुतली से बनकर रह गए हैं ,
कुछ पल तसल्ली से अपनों के साथ
गुज़ारने को तरस गए हैं ,
कभी बढ़ती महंगाई से बिगड़ते घरेलू बजट की चिंता ,
कभी अकस्मात प्रकट होने वाले खर्च की चिंता ,
कभी अनावश्यक खर्चों में बढ़ोतरी ,
कभी जरूरी खर्चों में कटौती ,
जोड़ घटाव का वित्तीय समीकरण बिठाते- बिठाते
हम थक से गए है ,
कंधों पर इन जिम्मेदारियों के बोझ से
हम दब से गए हैं ,
परिस्थितियों के इस समय- चक्र में
हम उलझ से गए हैं ,
लगता है वक्त से पहले ही
हम बूढ़े होने लगे हैं।