विडंबना
सत्य को स्थापित करना क्यों
संघर्षपूर्ण होता है ?
मानवीय संवेदनाओं के यथार्थ को समझाना
क्यों मुश्किल होता है ?
तर्कहीन विषयवस्तु को कुतर्क के
सहारे बहुमत से प्रतिपादित करना
क्यों सरल प्रतीत होता है ?
प्रज्ञान ,बुद्धिमता एवं व्यावहारिक कुशलता,
छद्म के विरुद्ध अभियोजन हेतु
जनमत के अभाव में
क्यों असहाय से प्रतीत होते हैं ?
नीति निर्देश , न्यायव्यवस्था एवं प्रशासन
प्रक्रिया के दोहरे मापदंड
क्यों विचलित एवं कुंठित करते हैं ?
सत्यनिष्ठा ,सदाचार ,सद् विचार,
सद्-भाव एवं सद्-व्यवहार
क्यों किताबी बातों में सिमटकर रह गए हैं ?
नियति की मार बहुदा निरीह लोगों पर
ही क्यों पड़ती है ?
ये समस्त प्रश्न निरंतर मन मस्तिष्क में कौधते रहतें हैं ,
इन सभी विसंगतियों के उत्तर खोजने में हम जीवनपर्यंत असमर्थ रहते हैं ।