विचारों की आंधी
विचारों की आँधी ऐसी आई कि हृदय रूपी सागर में शब्दों की पतवार डगमगा गई ।
जीव्हा के चापू अधरों की चट्टानों से टकराने लगे। अंतः तूफान के बवंडर में गोते खाने लगे।
ना दिशा का ज्ञान रहा ना ही पता चला ध्वनि के वायु वेग का।
क्या वदित हुआ ना ज्ञात रहा जब भयंकर कोहराम छाने लगे।
जब शांत हुआ तूफान तब पतवार किनारे आ गई। पर हानि हुई संस्कारों की सम्मान का बांध ढह गया।
फिर काम बस इतना बचा क्या लाभ हुआ क्या हानि हुई अनुमान यही लगने लगे।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’