6.*विखण्डित मनुजता*
विखण्डित मनुजता*
हम अनुकरण के हैं अनुगामी, धरा को क्षार कर बैठे
कर उपेक्षित निज संस्कृति को, वसुन्धरा हार कर बैठे।
पशुता के विज्ञ हैं पशु भी, क्यों मनुज प्रतिकूल मनुजता के?
मनुज ही हैं मनुजहन्ता, मनुज पर वार कर बैठे।।१।।
बिन दया करुणा क्षमा के तुम, कोई जज़्बात मत तोलो
नित हो मनुज हिय ममता, जहां में विष बात मत बोलो।
धरा आकर मनुज तन पाकर, करें हम काज पशुता के
व्यर्थ जीवन है मनुजता बिन चाहे जागो चाहे सो लो।।२।।
तू बटता ही गया मानव, दरबारों के घावों से
पर कतरे ही गये निशदिन, सरकारों के दावों से।
वर्णजाति- धरम- भाषा में बंटे, नगरों से गांवों तक
भारत की बंटी संस्कृति, कुविचारों के सम्प्रदायों से।।३।।
मौलिक स्वरचित अप्रकाशित
पं.आशीष अविरल चतुर्वेदी
“रसराज”
प्रयागराज