वाह वाह….मिल गई
कवि खुश, वाह वाह मिल गई…
लेखक खुश, किताब छप गई…
नेता खुश, मंत्री बन गया…
बच्चा खुश- नौकरी मिल गई…
मां-बाप खुश – एडमिशन हो गया..
ये मौसम, ये रंग, ये प्रकृति, ये उपवन
ये मस्ती, ये आलम, ये सुर, ये ताल..
प्रतिष्ठा की पेंगे, पद की थाप….
व्यंजन और व्यंजना के स्वाद….
घर की दीवारों में खुशी के पैबंद…
स्वागत-स्वागत बोलती चौखटें…
दस्तक देती दीवारें…
राजतिलक करते भाल…
उल्लास, उमंग का सागर
क्या है….कुछ भी तो नहीं…
जब कभी
हमारे सूने आंगन में उतरती है हंसी
विदा होती है बेटी या आती है दुल्हन
सिमट कर अंक में, पूछती है खुशी….
क्या चाहिए….कुछ और दूं…?
हम अंक फैलाए….यहां से वहां तक
वहां से यहां तक…बनते हैं यायावर…
और पूछते हैं अपने से…..
क्या खुशी मिल गई….?
खुशी…बंद डिबिया में सोने की अंगूठी है
और….हम……सिर्फ अनामिका…..।।
सूर्यकांत