वासियत जली थी
जमाने की रफ्तार में, हमारी चाल धीमी जरुर हुई
राहगीरों पर छाप छोड़, वो यू सीधी गुरुर हुई ।।
गुरुर की आजमाईश पर, मेरे अपने यु शिकार हुए
कुछ को छोड़ फरमाईश पर. अपनी करणी यु उद्धार हुई ।।
दिमागी कशमकश पर ,राज लिखा वो शालीमार हुई
शालीमार की आजमाइश पर ,परदा कर वो बेशुमार हुई ।।
बेशकिमती मोती बनाकर उसे मेरी खातिर भेजा था।
कई साल मुझे तड़पाकर ,किसी और को माहिर देखा था ।।
माहिर देखकर, मन में मेरे जलन का एहसास था।
मुझसे परे देखकर ,मन में उसे बुलाने का परिहास था
बोल मेरे वो सुनकर, मेरा परिहास क्यो बकवास था
यही अब वो जानकर खामोशी से नयी प्रीत की अरदास थी ।।
लिख गजल मैं उसके नाम उसकी वसीयत खाली थी।
देख पहले उसका नाम, लगा शायद वसीयत जाली थी ।।