Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
15 Jun 2023 · 13 min read

वापस

१..
मन

उच्छृंखल मन
नहीं होता नियंत्रित
उड़ता आकाश में
देकर डोर
किसी और के हाथों में ।

चिंताओं को सजाया था विविध रंगों से
बना दी थी एक पतंग
बाँध एक डोर उड़ा दी थी
एक आस थी, कोई तो लड़ाएगा पेंच
छोड़ दूँगी डोर, बह जाऊँगी उस ओर।

वह आया, काट दी पतंग
मैं गिरती ,कभी इधर कभी उतर
उसने ढील दे – देकर लिपटा लिया
और खींच ले गया ,अपने संग।

२..

सौदागर

भागती सड़क
समुद्र के किनारे किनारे
द्वारिकाधीश से सोमनाथ
सूखे सूखे से गाँव
ग़रीबी से पसरा आँगन ।

एक जगह कारें रुकी थीं
ढाब का पानी, नींबू पानी
चार छह ऊँट सजे
बच्चे आनन्द लेते
युगल समुद्र की लहरों का उफान देखते
औरतें चमकीले पत्थर बेंचती
काठियावाड़ी लिबास
शायद उन्हें गर्मी का अहसास नहीं ।

एक सजीली कजरारी
चमचमाते पत्थर लिए आ गई
मैंने पूछा एक का कितना
बोली दो सौ
मैंने कहा पचास
बोली बहुत गिर गए साहब।

कितनी पीड़ा थी शब्दों में
उसके हाथों में पाँच पत्थर
गालों की ठुड्डी पर पाँच गोदने
और चमकती आँखों में आस
लौट कर खोज लिया
पाँचों पत्थर ले लिए
दो पाँच सौ के नोट रख दिए ।

लौट रहा था कार तक
पीछे से आवाज़ आई
रुक गया
उसने मुस्कुराते एक शंख दिया
इसके कोई दाम नहीं ।

3..

सिलसिला

ज़िन्दगी एक सफ़र है
लिख दी गई
सफ़रनामा बन गया
कुछ खट्टे कुछ मीठे पल जुड़ते रहते हैं
आने वाले दिनों में
बीते हुए पलों का अहसास कराते हैं ।

अभी कुछ दिन पहले मिलीं थी वो
रोशनाई गिरी थी पूरी एक तरफ़
पूछने पर कहने लगीं
तुम थे नहीं और रोशनी चली गई
बढ़ाया था हाथ थाम ले कोई
हाथ आई रोशनाई, वहीं बिखर गई ।

तुम्हारे पाँव थकते नहीं क्या
हमेशा भागते रहते हो
कभी पीछे भी मुड़कर देख लिया करो
किसी की आँखें इंतज़ार करती हैं
लौटो तो शायद एक पल रुको
अपने दामन में समेट रख लें तुम्हें ।

ये सिलसिला है
ज़िन्दगी के सफ़े लिखने का
भरते रहेंगे अलग अलग रोशनाई से
कभी रूठती और कभी मुस्कराती
रुकती कहाँ है किसी के लिए!
४..
फुटपाथ

यह फुटपाथ है जैसा कि इसका नाम
पर नहीं होता वह अब
लोग आड़े तिरछे चलते हैं
क्योंकि यह अब हो गया फुटपाथ बाज़ार ।
आज यहाँ आया हूँ
कुछ किताबें ख़रीदने
बिखरी रहती हैं कचरे की तरह
जो पसंद हो ले लीजिए
दाम का स्टैंड लगा है उसमें कटौती नहीं ।
हिटलर, मसोलिनी, माओ, गांधी, नेहरू
लिंकन सब एक लाइन में दस रुपया
सार्त्रे,सुकरात, अरस्तू ,आइंस्टाइन ,
सब एक लाइन में पन्द्रह रूपया
महादेवी , शिवानी, प्रेमचन्द ढेर सारे
दाम दस रुपया
नंगी नंगी फ़ोटो वाली पालिथिन में
दाम पचास रुपया, खोल नहीं सकते ।
अपने पसन्द की किताब लेकर मुड़ गया
और तो सब बे मतलब लगा
एक ख़ालीपन चमकती रौशनी में
कौंधता रहा,
लगा कि शायद मस्तिष्क भी
फुटपाथ बन गया है
जहां अनेकों शख़्सियत ने क़ब्ज़ा कर लिया है ।

५.. वापस

बहुत मुश्किल है पगडंडियों पर लौटना
यद्यपि इस भव्य शहर में
पगडंडी से भी पतली क़तारें हैं इंसानों की
आसान नहीं हैं उन्हें पाना
हर जगह दिशा लिखी रहती है
केवल पढ़ना बाक़ी रहता है।

न खेत हैं और न खलिहान
सबकी अलग-अलग अहम से पहचान
लगता है कि गाँव का आदमी
बन गया एक अजीब इंसान
दरवाज़े से ही पूछा –
कहो कैसे आए , क्या काम
शायद पगडंडी की मिट्टी ने बता थी पहचान।

वापस मुड़ने में ही शान्ति मिली
साफ़े वाले के पास प्यार की रोटी मिली।

कितना फ़र्क़ है
इंसान एक ,पर बदलती इंसानियत
किंचित् अहंकार, खोखला वैभव
अशांत मन और धर्म का खोखलापन
संस्कारों की अवहेलना
अपनी पगडंडियों को भूलकर
ख़ुश होना।

बैलों की घंटियों में
वापस अपनी पगडंडियों पर लौट आया
एक आवाज़ में वह भाग आया
बाँहों में जो मेरा था
उसे कोई फ़र्क़ नहीं था
कि शहर की मिट्टी लगी है।

६.. निवेदन

बहुत ही धीरे धीरे रात ढल रही थी
और प्रतीक्षा तेजी से बढ़ रही थी
जरा सी आहट पर भी देखता
उटकाये कपाट को।

खिड़की से देख रहा था
रात में मोती के फूलों को गिरते हुए
मादकता भर रहे थे वायु में
तुम आ जाओ तो बस बटोर लाऊं
बिखेर दूं , सजा दूं तुमको।

आओ प्रिये, प्राणमल्लिका,
रात जा रही है
प्रणय निवेदन स्वीकार करो
बंधनों को निष्क्रीय कर दो
आज़ाद कर दो अपने को।

७.. किलकारियाँ

कहाँ गुम हो गईं पता ही नहीं चला
मैं भी दौड़ता रहा, वे भी दौड़ते रहे
समय के अंतराल में
रिश्ते-नाते सब भागते गए
गाँव की बंजर और अँधेरी गलियों से
चमचमाती सड़कों और अट्टालिकाओं में खो गए।

वर्षों उपरांत एक पटल आया
जीवन में उछाल लाया
भर दिया जैसे किसी विरही का आँगन
आँसुओं की महिमा सजने लगी
ख़ुशियों का ख़ज़ाना गढ़ने लगी
सहजता, सौम्यता, प्रेम और सहृदयता
एकाकार करते दर्शन, आत्मा- परमात्मा
इन सबको एक साथ मित्र बनाने लगीं ।

शादी- ब्याह, जन्मदिवस और गमन
सारे जीवन का उद्वेलन
एक ही पटल, एक ही उद्देश्य
जो कभी रुका था बहने लगा स-उद्देश्य
आज बजती हैं यहाँ शहनाइयाँ
ये चेहरे – किताब पर किलकारियाँ ।

८.. प्रभाती अनुभव

अपलक निहारता रहा मालती के फूलों की क़तारें
सोचा कुछ चुन लूँ, हृदय से लगाऊँ
एक पग आगे बढ़ाया ही था
खड़खड़ाहट सी हुई
काँप कर पीछे हट गया
नीचे देखा तो
मुरझाए फूल और पत्तियाँ
बिखरे पड़े थे, कुछ गुँथे, कुछ इधर-उधर ।

ठिठक गया ,मौन सुन रहा था
कराह थी उन गिरे हुए फूलों से
अजीब सी नीरवता थी उन पत्तियों में
कह रहे थे देखो,
तुम्हीं नहीं प्रकृति भी
हमें निचोड़कर छोड़ देती है
हम भी परित्यक्त हैं और कोई मूल्य नहीं।

हे मानव ! देख रहे हो वो सामने किनारे
कितनी गुलाब और गेंद के फूलों की क़तारें
कितना हृदय संतृप्त कर रहीं हैं
अभी माली आयेगा, टूट जाऊँगा
कहीं चढ़ जाऊँगा भगवान पर
कहीं प्रेमी के हाथों में
या प्रेमिका के जूड़े में सज जाऊँगा
और मेरी जीविता का अंत हो जाएगा ।

मैं प्रकृति हूँ
निरंतरता मेरा जीवन है
हे मानव ! मोह से मत ग्रसित हो
प्यार एक आनन्द है, अहसास है
सुरभित जीवन, नित्य प्रभात है।

९.. जनसंघ

मेरी भावनाओं से खेलते रहे
ज़ंजीरों में जकड़ दिया
अंदर एक लावारिस की तरह बंद कर दिया
पर मैं हमेशा के लिए लड़ना चाहता रहा।

मैं तो तुम्हारा अनुयायी था
हाँ ! क्रोध अवश्य था
पर सब तो दफन रहता था
इस हृदय रूपी कुंड के अंदर ।

स्वतंत्रता की प्यास बुझाने के लिए
हम सब रोए, पर समर्पित हो गए
शुरू किया था एक काना- फूसी के साथ
और पीछे एक कहानी,
अपने गौरव के दिन निर्मित कर गए।

हम लोगों को जो करना, वह कर दिया
उसके लिए कोई शिकायत नहीं
अब हम सब एक हैं,
उन्होंने हमको पा लिया, हमने उनको पा लिया ।
१०..
एक दिवस

ढलान से उतरते उतरते
थक गया था
साथी इशारा कर रहा था
बस थोड़ा और
और फिर पहुँच गया
एक चार पाँच
झोपड़ी के लोगों के बीच
जिनकी भाषा से
अपरिचित
साथी ने पानी पकड़ा दिया।
चारों ओर घना वन
कहीं कहीं से डूबती सूर्य किरणें
विवश था
एक वृद्ध के समीप खड़ा था मैं
पता नहीं कितने वर्ष के
अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे
साथी एक मग मेरे लिए
तो दूसरा वृद्ध के लिए
दोनों में मदिरा थी
इशारा किया कि झुक कर
पी जाइए
परंपरा का स्वागत कीजिए ।
सुबह देख रहा था
अनेक पेड़ों से आती सूर्य किरणों को
विविध फूलों की ख़ुशबू
अनेक आकार और रंग
और यौवन युवतियों का
हर चेहरे पर मुस्कान
न कोई व्यथा और ना ही कोई अवसाद
हर तरफ़ मस्ती है और उन्माद
मेरा काम है पत्थरों को खंगालना
उन्हीं में झांकना
साथी को लेकर , वृद्ध को धन्यवाद
कहकर
नीचे और ढलान पर उतरता गया।
झांकने लग गया जीवन
अपने जीवन और उस जीवन के बीच
कितना अंतर है
सब कुछ है पर कुछ भी नहीं है पास
पर वहाँ कुछ भी नहीं सब कुछ है पास।

११..
केवल एक बार मुस्कुरा दो

केवल एक बार मुस्कुरा दो
ये अमलतास जो गुलाबी और पीला
सूर्य की ऊर्जा पीने को विव्हल
ये गुलमोहर और घना हो गया है
अपरिमित छाँव के लिए
सुबह वह जो गुलाब और गेंदे के फूल
चूमने को आतुर
ये मचलती , कल-कल धारा
तुम्हारे रंगों में नहाने को विवश
बस सब प्रतीक्षा कर रहे हैं
केवल एक बार मुस्कुरा दो।

जानती हो न !
बिना श्रृंगार प्रेम तीव्र नहीं होता
और मुस्कुराना श्रृंगार का अंग है
ओंठ मुस्कुराते, नयन मुस्कुराते
चितवन मुस्कान बिखेरती
पग थिरकने लगते हैं
वायु उन्मादित लिपटी रहती है
और तब प्रेम सजीव हो जाता ।

वसन्त है,आओ।

१२..
परिवर्तन ?

आज छोटे के घर में रोशनी थी
वह शहर से लौटा था
रहने लायक जिन्दगी , शायद सीखकर
पर मै हैरान था शोर से।

देख लूं इस दौर को भी !
कदम , कशमकश मे दरवाज़े तक ले आए
सभी बाहर थे , खुश थे, रंगीन कपड़ों में
पर चेहरों से लग रहा घबराए।

ये मेरा गांव है , छोटा सा कुनबा है
सभी के कोई न कोई शहर में हैं
सभी आते जाते रहते हैं
सभी नए कपड़े गाहे बगाहे पहनते हैं।

मैंने जरा अन्दर झांक लिया
छोटे की पत्नी बनी थी कैबरे डान्सर
लिबास पहने लग रही थी बंदरिया
और छोटे शराब की बोतल के साथ
देखते ही बोल पड़े ” भेलकम” भइया।

जब तक जमीन से जुड़े रहोगे
अस्तित्व बना रहेगा
शक्ति के बाहर आकाश मे उड़ोगे
जमीन में गिर जाओगे।

१३..
खेतों से

फसल कट गयी,
सारा खेत ख़ाली हो गया
कितनी छोटी छोटी चिरइयाँ आती
गिरे दानों को चुगती, उड़ जातीं।

एक दिवस , जिज्ञासा वश
एक कटोरा पानी ले बैठ गया खेत में
चिड़ियाँ आती दाना चुगती
पानी पीतीं और उड़ जातीं ।

हाथ पसारा एक दिवस
कुछ निहारती रहीं
कुछ उड़ती चलीं गयीं
पर कुछ ने दाना दिया एक दिवस ।

मैं मिलाने लगा रस स्वाद का
फसल के दाने और चिरइयों के दाने
लगा कि असीम आनन्द है
एक उपजा हुआ तो दूसरा प्रेम का।

ये प्रेम के अंदर श्रृंगार का मिश्रण
दोनों ही अलग-अलग हैं
एक सूर्य की अग्नि से सिंचित
तो दूसरा सहृदयता, स्नेह से पल्लवित ।

१४..
बिवाइयाँ और झुर्रियाँ

पूरी बरसात लिपटा रहा खेतों की मिट्टी से
लगा कि मैं उसी का अंग हूँ
हल चलाता, पानी को इधर-उधर करता
मेड़ों को बनाता, संवारता
जीवन की सार्थकता पूरी होते नज़र आई।

लौटता, बैलों को नहलाता
उनके पैरों को धो देता,
चमकते देख हर्षित होता
अपनी खाट पर बैठ कर जब अपने पैर धोता
तो पाता वहाँ हैं बिवाइयाँ ।

फटी हुई बिवाई में मिट्टी भरी रहती
बड़ा आराम रहता जब तक गीलीं रहती
खाली कर देता पैर के दरारों को
क्योंकि सूखने पर टीस भरतीं।

पिचका पेट, सूखी आँखें
दीये की रोशनी में जब देखता
पाता चेहरे पर भी हैं झुर्रियाँ
कहती वर्षों की व्यथा
फिर उभरती तस्वीरें
धूप,बरसात और पाले की लकीरें
कुछ गुँथीं, कुछ गहरी, कुछ बोझ की
बिवाइयाँ और झुर्रियाँ, साथ चलती ।

१५.. झरोखा

बहुत ऊपर रंग बिरंगे पत्थरों के बीच
एक झरोखा था
मधुमक्खियों ने अपना घर बनाया था
कभी-कभी छत्ते से एक आध बूँद
शहद की नीचे गिर जाती
नीचे एक लता , पी लेती, मधुमय हो जाती
चाहत उसको ऊपर चढ़ाने लगी
रंग बिरंगे पत्थर सहारा देने लगे।

कोई आया, झरोखा देखा
धुँआ लगा दिया
सारी बिरादरी घबराहट में भाग गईं
छत्ते को उखाड़ वह चला गया
मधुमक्खियाँ आती विवश लौट जातीं।

बारिश में लता ने जी – तोड़ मेहनत कर डाली
पहुँच गयी झरोखे तक
सजाना शुरू कर दिया झरोखे को
और शरद के अन्त तक ढाँक दिया
थोड़े थोड़े से छिद्र रक्खे
अपनी पत्तियों से सुगंध बिखेरे।

रानी को महक भा गई
बसन्त में रस लेकर छोटे छिद्रों में समाई
अब नये सिरे से घरौंदा
और झरोखा फिर से रस में भीगने लगा
बाहर एक आवरण था
लता ने कुछ बूँदों का क़र्ज़ चुकता कर दिया
मधु रानी उसके क़र्ज़ में डूब गई।

१६.. होली आई रे

देख सखी मैंने सजाए
कितने कुसुमित फूलों से अंगों को
हर अंगों में चमक रही हैं
नयी नयी अभिलाषाओं की तरंग
हर तरंग को मैंने दर्पण में देखा है
अनुसार बनाई अपनी रूपरेखा है ।

बता सखी ! ये रूप, देह
यौवन कैसा दीखता है , पहचान पाएँगे
जब मेरे आँगन में उतरेगें वो
क्या भर पाऊँगी मैं साजन को
देख सखी !
पीला- ज़र्द परिधान का आँगन
बनाया है साजन के लिए
सजाई हैं चारों ओर
चम्पा और चमेली की लतिकाएँ
और
देख न ख़ुश्बू से भरे अबीर-गुलाल
बिखरेंगे उनके आगमन पर
खिल उठेगा यह फाग का त्योहार ।

ओ मेरी सखी ! आ
मुझे उनके आने की आहट सुनाई दे रही
देख वह सुन्दर सा पक्षी
आके बैठ गया है मुँडेर पर ठिठोली के लिए
संकेत कर रहा है मेरे प्राणेश के आने का
चल, उनका स्वागत करते हैं ।

१७.. आशा

मैं अपनी आशाओं को सहेजे रखता हूँ
हृदय का हर कोना बहुत सुदृढ़ रखता हूँ
जहां कहीं से कोई भी रास्ता हो
सदैव बन्द रखने का प्रयास करता हूँ
परंतु इन सबके बावजूद भी
वे कभी-कभी बाहर चली जाती हैं ।

हृदय के छोटे छोटे से छिद्रों से
जब आशाएँ बूँद बूँद रिसती हैं
तो कुछ टूटता सा लगता है
हृदय की गति का क्रम भी कुछ रुकने लगता है
प्रयास करता हूँ कि वे छिद्र बन्द कर लूँ
हो नहीं पाता
प्रतीक्षा करता हूँ नयी आशा का।

कौन देता है आज अपनी आशाओं को
ले आऊँ उससे
और अपने रिसते छिद्रों को भर दूँ
उसके अहसान का लेपन
नयी आशाओं में मलहम का काम कर सके।

१८..
प्रिय की प्रतीक्षा -होली

अब कितने दिन ही रह गए
तुम आओगे अवश्य
अपने रंगों से भिंगोने
कहोगे ये फाग के रंग हैं
और
मैं ना नहीं कर पाऊंगी।
देखती रहती हूं अदृश्य साए भी
जो कभी कभी द्वार से लौटते हैं
पर तब मैं उन्हे विभिन्न रूपों
प्रिय मे दीखती हूँ
राधा ही नहीं चण्डिका का रूप लेकर
हर आहट से संदेश पहुंचाती हूँ
मेरे रूप को लेकर ये मदान्ध
जो समाज के लिए है सड़ांध
फाग के पवित्र बंधन को भी निर्वस्त्र करते हैं।
आना जरूर,
हवाओं के संग संदेशा भेजा है
जंगलो से
विविध टेसुओं के फूलों को सहेजा है
तुम्हारी सेज
गेंदे और गुलाब से सजाने की तैयारी है
कमल के फूल का सिरहाना है
रंगो से भरे कपड़े बदलने पर
रेशम ने की है
तुम्हारे वस्त्रो की तैयारी
आना जरूर
तुम्हारी प्रतीक्षारत प्रिय।

१९..
स्वर और आकाश

सूर्य की उदय होती किरणें
जब निहारता
तो वहाँ पाता
अनेक संदेश लिखे हुए
मन में प्रेरणा, योग के लिए निर्देश
प्रार्थना के लिए समय
पूर्वजों के लिए तर्पण ।
पक्षियों का कलरव
शायद
यही समय निर्धारित
किया प्रकृति ने
अपने सहयोगी सूर्य
से मिलकर
रात की थकान
पूर्ण करते
अपनी कलाओं से आकाश में।
हे सूर्य और उजले आकाश
नमन् ।

२०..
सुबह

मैं रोज पार्क में चला आता
रात भर की उमस से घबराकर
और
पाता वह पेड़ के सहारे लगी
सूर्य की किरणों में किताबों में लीन
पढ़ती और फिर कुछ लिख लेती
दूर खड़ा निहारता
वह एक बार देख लेती और फिर शान्त।

वह एक अजनबी, अंजान
मैं तो रोज आता सुबह
पर अब वह रोज दिखाई पड़ती
कभी कभी किताबों का बोझ लिए
शायद दिमाग़ी उलझन के रास्ते
को नापने का नज़रिया था उसका ।

अपने ऊपर गिरते पत्तों को
वह कभी नहीं हटाती
पर
नये उगते पत्तों को ज़रूर निहारती
कुछ लिखती, शायद जीवन
फिर धूप तेज होने पर चली जाती
मैं भी पत्थर पर बैठा बैठा
उसके जाने के बाद
लौट आता, निरुद्देश्य क्या करता?

वह सुबह रहती ।

२१..
निरंतरता

जितने खुद के मक़सद थे
जला दिए हमने
और
आओ अब प्यार करें
रंग बिखेरें
खेतों में फसल तैयार खड़ी है
गले मिलने के लिए ।

देखना दाने न बिखरने पाएँ
बाँटना है इसे
अपनी जमीं से सरहद तक
ताकि ख़ुशहाली जगमगाए
चलो एक बार फिर
मिटाते हैं नफ़रत की दीवारें
ले आएँगे हम लोहड़ी पर नयी आशाएँ ।

और प्यार का यह निरंतर क्रम
विजय दशमी, दीपावली, ईद, क्रिसमस
चलता रहना चाहिए हर दिवस
अपना कुछ भी नहीं , सब हमारा है
विश्वास और कर्म से सफल होगा परिश्रम ।

२२..

प्रभात

नीचे उतर आया था हरी हरी घास पर
रंगों की पोटली और काग़ज़ के टुकड़े लिए
आज रात बहुत ओस गिरी थी
हर तरफ़ अलग अलग
ओस की बूँदों में रंगों को बनाता रहा
दूब पर गिरी ओस की बूँदों में
टेसू का रंग मिश्रित कर दिया
लौट आया।

वह अभी भी रात की अलसाई
मुद्रा में आवाहन करती हुई
निद्रित निवेदन करतीं
देखता रहा उनकी नाभि को
जहां लग रहा था एक भँवर है
जो हर श्वास के साथ
समुद्र की लहरों की तरह स्तनों को उभार
अपने में ही समाने का प्रयास करता
आवाहन कर रहा है
हर ओस की बूँदों में बनाए रंग
उसके रेशमी बालों से लगाता रहा ।

और
जैसे ही उनकी नाभि पर टेसुओं का रंग लगा
बाँहों को पसार मुदित अंकपाश में भर लिया
सारा रंग हम में सिमट गया
भरती रहीं वो अब अपने हिसाब से रंग
मैं अब शिथिल होने लगा।

२३.

स्वयं आइने में

प्यार के लिए प्रतीक्षा
नि:शब्द रहा
कुछ भी न लिख सका
केवल आइना
देखता रहा
जो कहता था बार बार
कर लो तुम पढ़कर समीक्षा।

मै भी बार बार कहता
कम नहीं आकूंगा तुमको देखकर
चाहे कितनी बार भी तुम कहो
मैं प्यार के काबिल नहीं
पर मै हर बार देखकर
यही कहूँगा मैं तुम्हारे
इस रूप से बहुत प्यार करता हूँ।

२४..

साँझ- सुबह

जहां बहुत घने पत्ते
एक दूसरे से प्यार करते रहते हैं
वहाँ भी सूर्य की किरणें
पार कर ही जाती हैं
और
फिर ओस की बूँदों में झाँकती
खींच ले आती हैं
उन पत्तों के ओठों की प्यास बुझाने ।

प्यार का यह अहसास
मानव समझ जाए
तब
शायद तने कट न पाएँ
जो झरोखे हम बनाते भावनाओं के
शायद उनकी उत्पत्ति ही रुक जाए।

साँझ और सुबह तो रुक सकती नहीं
पर रुक सकता है मन का मैल
प्रयास कर लें एक बार
ये जीवन बार बार मिलता नहीं ।

२5..
चन्द्रमा का अंतिम संस्कार
बुधवार
समय ९.१४
तारीख ७ अप्रैल
वो कौन सा हफ्ता था
याद नहीं
परंतु इसी दिन,इसी समय
तुम्हारी मृत्यु हुई थी
उसके बाद हर बुधवार को
ऐसा कुछ विशेष नहीं घटा
कि याद कर सकूं।
मैं आज भी
कल की ही तरह सुबह उठा
और चाय का प्याला लिए
दरवाजे की चौखट पर
खड़ा बाहर देखता रहा
दूसरा प्याला बगल में रक्खा रह गया
कुछ आवाज आयी
तो लगा कि शायद तुम
नाश्ते की तैय्यारी कर रही हो
ऌौट कर देखा
वहां सूनापन था
तुम्हारे होने का अहसास जीवित था
और फिर बृहस्पति ,शुक्र
न जाने कितने वार गुजरते गये
मैं अकेला
लिखता रहा तुम्हारे उलाहने, प्यार
तुम्हारेे में लिपटी अपनी जिन्दगी
मैं शायद दिनों की गिनती
और उनका क्रम,सिलसिलेवार
रोज़ सूर्य की किरणों के साथ
लिखता ही रह जाऊं
और साँझ होने पर
लिखे हुए पन्नों को
तारीख़ डाल कर
तुम्हारी यादों में सो जाऊँ।

Language: Hindi
109 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
नामुमकिन
नामुमकिन
Srishty Bansal
रंजीत कुमार शुक्ल
रंजीत कुमार शुक्ल
Ranjeet kumar Shukla
मनुष्य भी जब ग्रहों का फेर समझ कर
मनुष्य भी जब ग्रहों का फेर समझ कर
Paras Nath Jha
कोई बिगड़े तो ऐसे, बिगाड़े तो ऐसे! (राजेन्द्र यादव का मूल्यांकन और संस्मरण) / MUSAFIR BAITHA
कोई बिगड़े तो ऐसे, बिगाड़े तो ऐसे! (राजेन्द्र यादव का मूल्यांकन और संस्मरण) / MUSAFIR BAITHA
Dr MusafiR BaithA
ज़िंदगी देती है
ज़िंदगी देती है
Dr fauzia Naseem shad
सुरक्षित भविष्य
सुरक्षित भविष्य
Dr. Pradeep Kumar Sharma
"गौरतलब"
Dr. Kishan tandon kranti
कद्र जिनकी अब नहीं वो भी हीरा थे कभी
कद्र जिनकी अब नहीं वो भी हीरा थे कभी
Mahesh Tiwari 'Ayan'
जलती बाती प्रेम की,
जलती बाती प्रेम की,
sushil sarna
"किस किस को वोट दूं।"
Dushyant Kumar
2860.*पूर्णिका*
2860.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
ज़माना इश्क़ की चादर संभारने आया ।
ज़माना इश्क़ की चादर संभारने आया ।
Phool gufran
*जितना आसान है*
*जितना आसान है*
नेताम आर सी
सियासत में आकर।
सियासत में आकर।
Taj Mohammad
शिष्टाचार
शिष्टाचार
लक्ष्मी सिंह
Life is like party. You invite a lot of people. Some leave e
Life is like party. You invite a lot of people. Some leave e
पूर्वार्थ
किरदार अगर रौशन है तो
किरदार अगर रौशन है तो
shabina. Naaz
बीमार समाज के मसीहा: डॉ अंबेडकर
बीमार समाज के मसीहा: डॉ अंबेडकर
Shekhar Chandra Mitra
अनुराग
अनुराग
Sanjay ' शून्य'
Just lost in a dilemma when the abscisic acid of negativity
Just lost in a dilemma when the abscisic acid of negativity
Sukoon
हो भासा विग्यानी।
हो भासा विग्यानी।
Acharya Rama Nand Mandal
■ क़तआ (मुक्तक)
■ क़तआ (मुक्तक)
*Author प्रणय प्रभात*
सोच बदलनी होगी
सोच बदलनी होगी
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
मधुमय फागुन क्या करे,प्रियतम बिना उदास(कुंडलिया)
मधुमय फागुन क्या करे,प्रियतम बिना उदास(कुंडलिया)
Ravi Prakash
आकाश दीप - (6 of 25 )
आकाश दीप - (6 of 25 )
Kshma Urmila
मा भारती को नमन
मा भारती को नमन
Bodhisatva kastooriya
दिहाड़ी मजदूर
दिहाड़ी मजदूर
Vishnu Prasad 'panchotiya'
देखकर प्यार से मुस्कुराते रहो।
देखकर प्यार से मुस्कुराते रहो।
surenderpal vaidya
पेड़ पौधों के प्रति मेरा वैज्ञानिक समर्पण
पेड़ पौधों के प्रति मेरा वैज्ञानिक समर्पण
Ms.Ankit Halke jha
Forgive everyone 🙂
Forgive everyone 🙂
Vandana maurya
Loading...