वापस
बहुत मुश्किल है पगडंडियों पर लौटना
यद्यपि इस भव्य शहर में
पगडंडी से भी पतली क़तारें हैं इंसानों की
आसान नहीं हैं उन्हें पाना
हर जगह दिशा लिखी रहती है
केवल पढ़ना बाक़ी रहता है।
न खेत हैं और न खलिहान
सबकी अलग-अलग अहम से पहचान
लगता है कि गाँव का आदमी
बन गया एक अजीब इंसान
दरवाज़े से ही पूछा –
कहो कैसे आए , क्या काम
शायद पगडंडी की मिट्टी ने बता थी पहचान।
वापस मुड़ने में ही शान्ति मिली
साफ़े वाले के पास प्यार की रोटी मिली।
कितना फ़र्क़ है
इंसान एक ,पर बदलती इंसानियत
किंचित् अहंकार, खोखला वैभव
अशांत मन और धर्म का खोखलापन
संस्कारों की अवहेलना
अपनी पगडंडियों को भूलकर
ख़ुश होना।
वापस अपनी पगडंडियों पर लौट आया
बैलों की घंटियों में
एक आवाज़ में वह भाग आया
बाँहों में जो मेरा था
उसे कोई फ़र्क़ नहीं था
कि शहर की मिट्टी लगी है।