वापस लौट नहीं आना…
वापस लौट नहीं आना…
मंजिल तक जाने में निश्चित,
व्यवधान बहुत आएंगे।
बस तुम मुश्किल से घबराकर,
वापस लौट नहीं आना।
दुख को चखकर सुख की कीमत,
और अधिक बढ़ जाती है।
रौंदी जाकर भी तो देखो,
धूल गगन चढ़ जाती है।
देख सामने कठिन चुनौती,
हिम्मत हार नहीं जाना।
सागर से मिलने की धुन में,
नदियाँ बढ़ती जाती हैं।
जज्बा, लगन, हौसले के नव,
मानक गढ़ती जाती हैं।
तुम भी अनथक बढ़ते जाना,
जब तक पार नहीं पाना।
रोड़े-पत्थर काँटे-कंकड़,
पग-पग पथ में आएंगे।
कितने लालच दुनिया भर के,
आ ईमान डिगाएंगे।
कितना कोई दुख बरपाए,
पर तुम खार नहीं खाना।
धूप-शीत-तम-अंधड़-बारिश,
खड़ा यती-सा सहता है।
चीर जड़ों को देखो तरु की,
मीठा झरना बहता है।
तप-तप कर ही स्वर्ण निखरता,
सच ये भूल नहीं जाना।
गरज-गरज कर काले बादल,
आसमान पर छाएंगे।
भूस्खलन और ओलावृष्टि,
मिल उत्पात मचाएंगे।
पाँव जमा अंगद से रखना,
अरि से मात नहीं खाना।
साँझ ढले से देखो चंदा,
निडर गगन में चलता है।
निविड़ तिमिर की चीर कालिमा
जग को रोशन करता है।
तुम भी अपनी धुन में चलना,
पथ से भटक नहीं जाना।
बस तुम मुश्किल से घबराकर,
वापस लौट नहीं आना।
– © डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
“सृजन शर्मिष्ठा” से