वाचाल सरपत
हे गुण ज्ञानी नहि अभिमानी
मै छा जाता बनती ढानी ।
जब मैं खेतों का प्रहरी बन जाता
चलती घर की दाना पानी ।
हमारी सेठा की कलमों से
लिखते – पढ़ते बनें “कलाम” ।
तृणकुटी बनाकर परशुराम की
वीर कर्ण सम नहि कोइ दानी।
हमारी पात में तीखी धार
काटे जिह्वा मरे फेटार ।
हमारे सूपों की फटकार
बनता चावल गेहूं ज्वार ।
जब मैं बन जाता हूं मंण्डप
होती शादी बढ़ता प्यार ।
रंगते मूंजा बनता भांडा
मौनी सिकहुला तौला धार ।
पूरी करता सौंच जरूरत
हमरी ओट में मिले निदान ।
जब हमरी मूंज से सजती अर्थी
सब मर जाता है अभिमान ।
फिर हमारी जरूरत होगी तुमको।
जब होगा नष्ट यहां विज्ञान ।।
-आनन्द मिश्र