#वाक़ई-
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■ बहुत कुछ साफ़ हुआ साहब! दस साल में।
[प्रणय प्रभात]
मान गए साहब, आपके “स्वच्छता अभियान” को। क़सम से, बहुत कुछ “साफ़” हुआ बीते 10 साल में। साफ़ क्या हुआ, ये मानिए कि “सफाया” ही हो गया। बचा-खुचा भी “सफ़ा” हो जाएगा, पुख़्ता यक़ीन है मुझे। मन लगा कर अंत तक पढ़ लेंगे, तो आपको भी हो जाएगा। वो भी महज 10 मिनट में। जो काम आएगा अगले 4 साल नहीं, 2047 तक। बशर्ते वहां तक पहुंचने लायक़ बचे रहें “ग्लोबल वार्मिंग” व “क्लाइमेट चेंज” के बीच।
सफ़ाई का मतलब सिर्फ़ “कचरे” से तो होता नहीं है। क्योंकि कचरा सर्वकालिक, सार्वभौमिक, सर्वव्यापी है। आधुनिक बाज़ारवाद व भौतिकतावाद के चलते जितना जाएगा, उससे बीस गुना वापस आएगा। अजर-अमर व अविनाशी आत्मा की तरह। धरती ही नहीं, चांद, मंगल, अंतरिक्ष तक। जहां-जहां हमारी पींग व पहुंच बढ़ेगी। अंधी होड़, बहरी दौड़ के चलते। बहरहाल, बात करते हैं, वहां की, जहां से हमारा जीवन, हमारे सरोकार जुड़े हैं। जीवन भर के लिए।
माननीय प्रधान जी! कहना यह है कि मुहीम के नाम पर सीज़नल सफ़ाई एक नाटक से ज़्यादा कुछ नहीं। हमारे देश के सारे गांव, कस्बे, नगर, महानगर एक पखवाड़े में “इंदौर” तो हो नहीं जाएंगे। ना ही देश भर के नागरिक “इंदौरी”, जो एक दिन, एक हफ़्ते या एक पखवाड़े नहीं, हर दिन हर पल स्वच्छता के लिए जूझते हैं। अधिकारों के दावों वाले दौर में नागरिक दायित्वों को आगे रखते हुए। यदि सारे “इंदौरी” होते तो हर बार “इंदौर” ही सबका सिरमौर बन पाता? वो भी आपके जन्म और कर्म-क्षेत्र की राजधानियों को पछाड़ कर। जो हर मौसम में आपकी व देश की साख को बट्टा लगाती हैं। वो भी तब, जब सर्वत्र “विकास” के नाम पर “प्रयास” की डुग्गी दसों दिशाओं में दिन-रात पिट रही है। सभाओं से चैनलों तक।
आप ही सोचिए, साल भर देश के कोने-कोने को “कचरायुक्त” बनाने वाले दस-बीस दिन झाड़ू थाम कर कैमरों के सामने नौटंकी करेंगे तो क्या कचरा “थर्रा” जाएगा? सच तो यह है कि कचरा भी अब उन लोगों की गंध पहचान चुका है, जो साफ़-सुथरी सड़कों पर झाड़ू फेरते हुए फोटो खिंचवाने और “रील” बनवाने के आदी हो चुके हैं। ऐसा न होता, तो दस साल में एक फ़ीसदी देश तो साफ़ हो ही चुका होता कम से कम। सच यह है महाप्रभु, कि कचरा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। जिसका वजूद हमारे परिवेश से लेकर हमारी खोपड़ी व खोपड़ी में बसी सोच तक समाया हुआ है। सच तो यह है कि बिना कचरा-पट्टी मचाए हम सुक़ून से न जी सकते हैं, न मर सकते हैं।
अब आप और आपके अनुचर तस्वीरों और वीडियो में सफ़ाई देखकर ख़ुश होना चाहें, तो मर्ज़ी आपकी। हम कोई “नारद” तो हैं नहीं, जो “परम् स्वतंत्र न सिर पर कोऊ” बोल कर अपनी भड़ास निकालने का हौसला दिखा पाएं और शामत बुलाएं। इतनी सी चुर-चुर भी अपनी उस “फ़क़ीरी” के बूते कर लेते हैं, जिसे न कुछ खोने का भय है, न पाने की आस। मामूली सी पढ़ाई-लिखाई के करण यह भी पता है कि ईडी, सीबीआई ठन-ठन पाल मदनगोपाल का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। ठीक वैसे ही, जैसे खाक़ी और सफ़ेद वर्दी “नाबालिगों” का। रहा सवाल “हनी-ट्रेप” का, तो उसमें फंसने की उम्र कोसों पीछे छूट चुकी। अब कोई नया “फंडा” या “हथकंडा” अलग से ईजाद हो जाए, तो और बात है।
मान्यवर! साफ़-सफ़ाई केवल करोड़ों के बज़ट जारी करने भर से हो जाती, तो गंगा-यमुना कब की साफ़ हो चुकी होतीं। जिनकी गंदगी मिटाने के नाम पर अरबों का बज़ट मटियामेट हो गया। जिसे आप चाहें तो “मुद्रा का सफ़ाया” भी मान सकते हैं। सड़क का कचरा नाली में, नाली का नाले में, यह आलम है रोज़ की सफ़ाई का। तभी तो आधा घण्टे की बारिश बाढ़ ला देती है और घण्टे भर की बरसात सुनामी। सफ़ाई अभियान ईमानदारी से चलाना है, तो कूड़े के ढेर (घूरे) पर जाइए ना। जिनके “भाग” अब बारह छोड़ चौबीस बरस में भी नहीं बदल पा रहे। सारी कहावत उल्टी पड़ रही है। घूरे पहाड़ का रूप धारण करने को बेताब हैं। भार से बेज़ार धरती रसातल में जाने को आतुर।
सफ़ाई को लेकर कोई सफ़ाई मेरी समझ से तो बाहर है भगवन! दोष आपका या आपके “इवेंट मैनेजमेंट” में माहिर सिस्टम का नहीं, मेरी टूटी-फूटी तक़दीर का है। जो मैं ग़लती से ग़लत जगह पैदा हो गया। जहां रोज़ सामने वाली आंटी घर भर का करकट निगाह बचा कर मेरे दरवाज़े के पास फेंकने की आदी है। तो उनके बाजू वाली भाभी अपने पोता-पोतियों के पोथड़े (डायपर्स) सूखी नाली में स्ट्रीट-डॉग्स की रखवाली में छोड़ जाती हैं। अब मर्ज़ी कमअक़्ल व कम्बख्त कुत्तों की, कि उनकी होम-डिलेवरी कर किस-किस को कृतार्थ करें। यही हाल बग़ल वालों का है, जिनकी बासी दाल या भुसी हुई सब्ज़ी प्रायः तीसरी मंज़िल से डायरेक्ट रोड पर कूद पड़ती है। बिना किसी डर के।
कमाल की बात यह है कि सारे कारनामे सफ़ाई-अमले की घर-वापसी के बाद चालू होते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे आपके विभागों व निकायों को सड़क बन जाने के बाद नाली, पाइप लाइन या केबल के लिए खुदाई सूझती है। कभी “मन की बात” में ऐसी बातों का भी ज़िक्र हो जाए। भले ही एकाध एपीसोड का शीर्षक “बेमन की बात” हो जाए। कम से कम कोई मुद्दे की बात तो हो, बात बात में। पता है आपके घनघोर नक़्क़ारखाने में मुझ तूती की रीं-रीं, पीं-पीं को सुनने वाला कोई नहीं। मगर क्या करें, आपकी तरह हम भी लाचार हैं। हर मौके पर चौका जड़ने के मामले में। अब यह और बात है कि आपकी बॉल बाउंड्री पार हो जाती है। हमारी साली बल्ले पर ही नहीं आती।
सारा चक्कर यहां भी नसीब का है। पिछड़ने का अंदेशा होता तो काहे पैदा होते अगड़ों में। न लीपने के रहे, न पोतने के। कुलीनता का टैग लगा होने के कारण न चाय की गुमटी लगा सकते हैं, न नालों की गैस के दम पर पकौड़ों का ठेला। नीले सिलेंडर से बना कर बेचना लाल वाले से रोटी पका कर खाने से ज़्यादा मंहगा है। सत्ता व संगठन दोनों में हाशिए पर पड़ी बिरादरी से आते हैं। क़लम-घिसाई धर्म है। घिस रहे हैं बिना शर्म के मुफ़्त में। अब सारों का काम पांच किलो राशन से तो चलने से रहा। चकल्लस की चूरन-चटनी भी लाजमी है। बिना तिल्ली की रेवड़ियों को हज़म करने के लिए। वरना कैसे काम आएंगे वो “टायलेट”, जिन पर “प्रेम कथा” तक रची जा चुकी है।
“स्वच्छता” का मतलब “साफ़-सफ़ाई के बजाय “सफ़ा” या “सफ़ाया” हो जाए, तो बात बन भी सकती है। सफ़ाई हुई हो या न हुई हो, “सफ़ाया” जम कर हुआ है। थोड़ा-बहुत नहीं सर, इतना कि एक “रासो” रचा जा सकता है। सफ़ाए के सम्मान में। महाभारत महाग्रंथ से भी मोटा। बिना किसी गाइड, बिना किसी शोध के। ठीक उसी तरह जैसे बिना जनगणना नीतियां रची जा रही हैं। ब्यूरोक्रेट, डेमोक्रेट या हिप्पोक्रेट होते तो लिखने के नाम पर फंड लेकर किसी से भी लिखवा लेते। अध्धयन-प्रवास के लिए अकादमिक माल व मौका मिलता सो अलग। हो सकता है दस-बीस सम्मान व दो-चार अलंकरण भी नाम के साथ चस्पा हो जाते। अब हम कोई अंतरराष्ट्रीय बाज़ारीकरण पर अरबों लुटाने वाले ग्राहक तो हैं नहीं, जो दीगर मुल्क़ हमें बुला-बुला कर ख़िताबों से नवाज़ें।
“आपदा में अवसर” के बजाय “आपदा के अवसर” भरपूर मिलें, तो इससे अच्छी क़सीदाकारी हो भी कैसे सकती है? “ताली से लेकर थाली पीटने तक” में हम भी अव्वल थे हुजूर! आरती के लिए “मोबाइल की टॉर्च घुमाने से लेकर दीये और मोमबत्ती जलाने तक में भी।” गुस्ताख़ी इतनी सी हुई कि आपके नाम की चुनरिया न ओढ़ पाए। अब बिना “पट्टे और दुपट्टे वाले” की क्या पहचान? वो भी गमछा-धारियों और भांति-भांति के प्रभारियों के मोहल्ले में। जो “पट्टे” के आधार पर “पालतू और फ़ालतू” का पता लगाने में दरबारियों से ज़्यादा पारंगत हैं। वैकुंठ के पार्षद “जय-विजय” की तरह। इंद्र, कुबेर, कामदेव और रम्भा, मेनका, उर्वशी को गंध-मात्र से पहचान लेने वाले। क्यों और कैसे पहचानें लंगोट-धारी “सनत कुमारों” को। न तन पर मखमली, रेशमी, रत्न-जड़ित लिबास, न खोपड़ी पर एक अदद मुकुट। फिर चाहे वो सोने का पानी चढ़े पीतल का ही क्यों न बना हो। वैसे भी अब पीतल को 24 कैरेट का सोना बना डालना आसान हो चुका है। ज़माना दुधारे “डायनामाइट” के पड़पोते “एआई” (आर्टीफीशियल इंटेलीजेंसी) का जो आ गया है। आपकी अनन्त कृपा से। सदुपयोग कम, दुरुपयोग भरपूर।
अब बात करते हैं “सफ़ाये” की। जो वाक़ई सफ़ाई से जारी है। अब ये सफ़ाई हाथ की है या पांव की, जानकार जानें। सफ़ाया हुआ है स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई का, युवाओं में तरुणाई का, खेतों से फ़सलों का, खानदानी नस्लों का, राजनीति से नीति का, घर से समाज तक प्रीति का, सौहार्द्र व सद्भाव का, समरसता व समभाव का, आपसी व्यवहार का, सिद्धांत व संस्कार का। सफ़ाई की आड़ में सफ़ाये का धंधा इस रफ़्तार से चल रहा है कि अर्थव्यवस्था की कथित रफ़्तार को मात दे रहा है। जिसे देखिए, वही सफ़ाई के नाम पर सफ़ाये के मूड में है।
सायबर-ठग एक क्लिक से बैंक एकाउंट साफ़ कर रहे हैं। रही-सही कसर ऑनलाइन गेमिंग वाले पूरी कर रहे हैं। जिनके चंगुल में बच्चे बाप की जेब और माँ का पर्स साफ़ किए दे रहे हैं। भारी-भरकम बज़ट नेता और नौकरशाह साफ़ किए जा रहे हैं। लॉकर्स की सफ़ाई बैंकों में आम बात बन गई है। जो “विधवा की मांग” की तरह खाली पड़े खातों से पेनाल्टी के नाम पर 57 रुपए 21 पैसे की राशि तक साफ़ करने से नहीं चूक रहे। जो आप बेचारे आम उपभोक्ता को भारी-भरकम सब्सिडी के नाम पर भेज कर कृतार्थ कर रहे हैं।
सफ़ाई और भी जगह हुई है। अपताधियों, काला-बाज़रियों, नक़्क़ालों, मुनाफ़ाखोरों के दिल-दिमाग़ से क़ानून का ख़ौफ़ साफ़ हो चुका है। नाबालीगों व नशेड़ियों की खोपड़ी से वर्दीबका। लिहाजा आबादी की सफ़ाई की ख़बरें धड़ल्ले से बढ़ रही हैं। सफ़ाई से प्रेरित अड़ोसी-पड़ोसी सहिष्णुता के सफ़ाये पर आमादा हैं, तो जाफ़र और जयचंदों के वारिस मुल्क़ का सफ़ाया करने को आतुर हैं।
खनन-माफिया धरातल से रसातल तक की सफ़ाई में प्राण-पण से जुटे हैं। भू-माफिया कॉलोनी के लिए खेत तो खेतों के लिए जंगल साफ़ कर रहे हैं। मजबूरन जंगली जानवरों को हाथ, दांत, पंजों व जबड़ों की सफ़ाई दिखाने गांव, कस्बों, शहरों में आना पड़ रहा है। सफ़ाये का मन बना चुके नदी, नालों व सागरों की तरह। सदनों से विपक्ष साफ़ हो रहा है तो दलों से नेता व कार्यकर्ता। यह और बात है कि इस सियासी सफ़ाई के चलते कल का “गुलदान” आज का “उगालदान” बन चुका है। “राम तेरी गंगा मैली” की तर्ज़ पर।
ऐसी सफ़ाई भी किस काम की, कि घर ज़माने की गंदगी बटोर कर लाने और चमकाने का घाट बन जाए और घर के साजो-सामान का कचरा हो जाए। कहाँ तक गिनाएं बॉस? थाली से आलू-टमाटर साफ़ हो रहे हैं, तो हांडी से प्याज़-लहसुन व अदरक। दवाओं से मरीज़ साफ़ हो रहे हैं तो ट्रेनों व बसों से लगेज। मंदिरों के प्रसादों से शुद्धता व पवित्रता का सफ़ाया हो रहा है तो लोक-आचरणों से नैतिकता, मर्यादा व मूल्यों का। तीज-त्योहारों से उमंग व उल्लास का सफ़ाया हो गया तो अमन-पसंद लोगों के जीवन से शांति व सुरक्षा के विश्वास का।
बुज़ुर्ग नागरिकों के लिए रेल किराए में रियायत, बरसों-बरस सेवा देने वाले कर्मचारियों की पेंशन, युवाओं की नौकरियां अर्थव्यवस्था की दुहाई देकर पहले ही साफ़ की जा चुकी है। चंद धाराओं की संख्या में बदलाव मात्र से न्याय-प्रणाली साफ़ हो ग केई है। दंड पर न्याय की प्रबलता के नाम पर उपजी उद्दंडता भद्रता के सफ़ाये के चक्कर में है। कोई तेज़ रफ़्तार गाड़ी से सड़क की सफ़ाई कर रहा है, तो कोई सेंधमारी कर दुकानों और गोदामों की। कोई राशन का भंडार साफ़ कर रहा है। कुल मिला कर सफ़ाई परमो-धर्म बन चुकी है।
साफ़-सफ़ाई और सफ़ाया आदत में ऐसे घुसा है, जैसे बस्ती-बस्ती में घुसपैठिये। जिसे देखिए वही साफ़-सुथरा व सफ़ाई-पसंद है। कोई साफ़-साफ़ धौंस-डपट दे रहा है, तो कोई बिना मांगे सफ़ाई। कोई साफ़-साफ़ गालियां देकर अपनी साफ़गोई का मुजाहिरा कर रहा है, तो कोई उग्र व उन्मादी भीड़ का हिस्सा बन निरीहों पर हाथ साफ़ कर रहा है। साफ़-साफ़ सौदेबाज़ी, साफ़-साफ़ धंधेबाज़ी, साफ़-साफ़ लफड़ेबाज़ी, साफ़-साफ़ पंगेबाज़ी। अब और क्या बचा है प्रभु, साफ़ करने व कराने को?
राजधानी में जी-20 के बाद सजावटी सामानों की दिन-दहाड़े सफ़ाई तो आप भी नहीं भूले होंगे। इसलिए कोई नया फ़ार्मूला लाइए अब। वहुत हो ली साफ़-सफ़ाई। इस देश में तीज-त्योंहार व अतिथि सत्कार की परिपाटी न होती, तो घर-घर चौपाटी होती। साफ़-सफ़ाई की पगड़ी दीवाली, क्रिसमस, ईद के सिर पर बंधी रहने दीजिए। मुमकिन हो तो सफ़ाये पर रोक लगाइए। स्वच्छता को नुमाइशी या “चार दिन की चांदनी” बनने से बचाइए। ज़हनी व ज़हनियत के कचरे के फैलाव का कारगर नुस्खा खोज कर अमल में लाने के बारे में सोचिए। ऐसा न हो कि देर हो जाए और बचा-खुचा भरोसा भी साफ़ हो जाए। हमारे जैसों का।
नवरात्रा के साथ नए उत्सवी क्रम का श्रीगणेश हो रहा है। सफ़ाई आम जनता पर छोड़िए। आप सफ़ाये का एजेंडा सेट कीजिए। सफ़ाया कीजिए उन मांदों का, जहां से निकल कर भेड़िए हमारे सिंहों पर कायराना हमला कर रहे हैं। सफ़ाया कीजिए उन झुग्गी-बस्तियों व बदनाम गलियों का जो मानव क्या पशुओं तक के लिए साक्षात नर्क हैं। सफ़ाया कीजिए व्हीआईपी कल्चर, निरंकुश नौकरशाही व भर्राशाही का, जो नक्सलवाद जैसी देशद्रोही परिपाटी की महतारी (जननी) है। सफ़ाया कीजिए जाति, भाषा, क्षेत्र के आधार पर बढ़ते अलगाव का, जो एकता व अखंडता के लिए ख़तरा है। सफ़ाया कीजिए देश, समाज व जनरोधी सोच व आसुरी शक्तियों का, जो चिंगारी से दावानल बनने की ओर पूरे वेग से अग्रसर है। सफ़ाया कीजिए सार्वजनिक सम्पदा के विध्वंस व नरसंहार के मंसूबों का, जो आज की सबसे बड़ी चुनौती है। भ्रष्टाचार, मुफ़्तखोरी, मिलावट, जमाखोरी, मुनाफ़ाखोरी जैसी गन्दगियाँ भी अब निवारण नहीं निर्वाण के लिए एक समूल-सफ़ाया अभियान चाहती हैं।
और हां, एक बात तो रह ही गई बताने से। थोड़ी सी सफ़ाई इस आभासी दुनिया (सोशल मीडिया) की भी करा दीजिए। जहां अश्लीलता का निर्वसन नृत्य सरे-आम जारी है। वस्त्र-हीन 72 लाख हूरों के एकाउंट व उनके “इंडियन एस्कॉर्ट सर्विस सेंटर” पता नहीं आपको कैसे नहीं दिखे अब तक। आप तो 13 महीने 366 दिन एक्टिव रहते हैं यहां। वो भी दिन में 25 घण्टे। फिर दूर-दराज़ के मजरों-टोलों से गुमनाम चेहरों व अनूठे कामों को ढूंढ लाने वाली आपकी “संजय-ब्रांड” दिव्य-दृष्टि उस काले कारोबार तक कैसे नहीं जाती, जो दिन के उजाले में चल रहे हैं व लाखों को करोड़ों से छल रहे हैं।
चउओं, पउओं, अद्धों, खम्बों की वो जानें। मुझे तो “ओरिजनल” के बजाय “रीज़नल” व “सीज़नल” सफ़ाई समझ में आने वाली नहीं। ख़ास कर आज के माहौल में जहां “थूक” घी, मक्खन, क्रीम, मलाई की जगह “रोटी से बॉडी तक” रगड़े जाने की बात आम हो गई है। फल-फूल, सब्ज़ी-भाजी “लघुशंका” से ताज़गी पा रही हैं। कल को मामला “दीर्घशंका” तक भी जा सकता है। जहां “प्रसादम” की स्वच्छता (शुद्धता) संदिग्ध हो जाए, वहां किसी सफ़ाई की क्या विश्वसनीयता बाक़ी बचती है? सामने (मुख़ालिफ़) खड़े होकर “6” मत देखिए। मेरे बाजू में आइए। वही आपको भी “9” नज़र आने लगेगा। आज नहीं तो शायद कल।
माई-बाप! छोटे-मोटे ही सही, “आईने” हैं हम। आपके “आईन” (संविधान) की तरह। हम परिदृश्य उपजाते नहीं, प्रतिबिम्बित करते हैं। वो दिखाते हैं, जो देखते हैं। बिना किसी सजावट, बनावट या लाग-लपेट के। देखना आपका और आपकी आंखों का काम है। “नारद-मोह” की कथा आपने भी सुन रखी होगी। उनकी किरकिरी केवल एक दर्पण की कमी ने ही कराई। अन्यथा देव-ऋषि, परमहंस व प्रभु-प्रिय वे भी थे। हिसाब साफ़, गुस्ताख़ी माफ़। आदाब अर्ज़ है, क्योंकि राजा का सम्मान प्रजा का फ़र्ज़ है।
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-सम्पादक-
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