वह सब कुछ हारा
वह सबकुछ हारा
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!!श्रीं !!
समांत – आरा, आधार छंद- विष्णुपद ।
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प्रेम नदी अंतस में बहती, पावन है धारा ।
ढाई आँखर जो भी पढ़ता, वह सब कुछ हारा ।।1
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आँसू करता प्रेम नयन से, भर-भर लहराये ।
लेकिन जब भी बहे आँख से, हो जाता खारा ।।2
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हर नदिया सागर में जाकर, लीन हुआ करती ।
प्रेम डोर से बँधकर आती, सिंधु लगे प्यारा ।।3
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प्रभु की है सौगात अनुप ये, जिसको मिल जाती।
दुनिया को लगने लगता वह , पागल बेचारा ।।4
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परवाना जलने आ जाता , दीपक जहाँ जले ।
कर देता उत्सर्ग ज्योति का, प्रेमी मतवारा ।।5
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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