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16 May 2024 · 2 min read

*वह बिटिया थी*

बेटा बेटी में अन्तर करने वाले समाज को समर्पित मेरी एक कविता……..

* वह बिटिया थी *
——————————————————

जश्न मनी थी उस दिन, घर में माँ बेहोश पड़ी थी,

नाच-नाच कर दाई माँग रही थी नेग बेटे की बधाई।

लेकिन मातम छाया था जिस दिन घर में वह आई

साँप सूँघ गया था घर को, माँ कुलक्षणी कहलाई ।

सबने बहुत रुलाया था ज़हरीले ताने दे-दे कर,

कुल कोटि की कंगाली क्यों बेटी जन्माई ?

आँचल में समेटे उसको माँ भी कोसा करती थी,

हर क्षण, नये संघर्ष से लड़ने, क्यों धरती पर आई ?

सच है, उसके आने पर मकान बना था घर,घर के लोगों को सम्मान मिला,

वह बिटिया थी, उसके हिस्से में घर का काम मिला।

साफ़-सफ़ाई, चौका बर्तन बंदिशों में बंधा जीवन,

हर गतिविधि पर पहरेदारी चौकस चारदीवारी भी।

ये मत बोलो ये मत सुनो यहाँ न बैठो वहाँ न जाव

चलना धीरे-धीरे सीखो , हंसना नहीं है जोर से।

पढ़ लिख कर तुम कौन भला मेरा नाम रौशन करने वाली,

सिर का बोझ, पराया धन, घर में हीं उपनाम मिला।

अपमान भरी इन सीमाओं की बेड़ियाँ झकझोर रही हर क्षण मगर, हर दर्द छुपाये सीने में वह घर सम्भाला करती है।

अपने सुख-दुख की फ़िक्र नहीं औरों के नींद सोती-जगती,

फिर भी अबला लाचार बनी घर में ग़ैरों की भाँति रहती।

जिस दिन सारे बोझ उतार सुदूर चली जाएगी वो ,

माँ के ताने पिता की चीख भाई-भाभी की चिक-चिक सन्नाटे में खो जाएँगी ।

कितना प्रामाणिक थी वो, वह सूना घर बतलाएगा।

एक मात्र उसके जाने से घर फिर अकेला हो जायेगा ।

बोझ नहीं काँधे की बेटी, हर बोझ को कंधा देने वाली,

कितनी छोटी सोंच है तेरी, दुनिया को बतला देगी ।

जीतना अवसर देते बेटों को उतना दे कर देखो उसको,

तेरे सर का हर बोझ लिए कांधे पर आसमान भी छू लेगी ।

जिसे सहारा मान कर दुनिया बोझ समझती है उसको,

सब कुछ ले कर तेरा तुझसे, वो भी लाचार हो जाता है। आवाज़ लगा कर देखो ! हर दुत्कार की पीड़ा भूल, तेरी लाठी बन जायेगी ।

बोझ नहीं वह बिटिया है! लेने कुछ न आती है वो, दे जाती है जी भर के आशीष ।।

मुक्ता रश्मि

मुजफ्फरपुर ‘बिहार’

Language: Hindi
2 Likes · 76 Views
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